प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेश निति में फहराया परचम

विवेक ज्वाला ब्यूरो। अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जर्मनी, स्पेन, रूस और फ्रांस जैसे चार हम देशों का बेहद कामयाब दौरा संपन्न किया है। विशेषकर वैश्विक स्तर पर बढ़ते आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसे हम मसले पर मेरिका के बदले हुए रुख के दौर में यह दौरा खासा महत्वपूर्ण रहा है। विदेश नीति में प्रधानमंत्री मोदी की सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि तीन साल के दौरान मोदी सरकार की विदेश नीति की क्या दशा-दिशा रही। इस बीच सरकार के तीन साल का कार्यकाल पूरा होने के वसर पर उसके प्रदर्शन का आकलन पेश करने की होड़ भी मची है। सरकार भी खुद पनी उपलब्धियों का प्रचार कर रही है और प्रधानमंत्री ने भी पनी सरकार के प्रदर्शन आकलन का स्वागत करते हुए कहा कि वह रचनात्मक आलोचना का स्वागत करते हैं
जो हमारे लोकतंत्र को मजबूत बनाता है। साल में किसी भी सरकार के प्रदर्शन को परखने के लिए तीन साल की वधि बहुत कम है विशेषकर मोदी सरकार जैसी सरकार के लिए तो यह और भी कम है जो सरकार कायाकल्प करने वाले एजेंडे के साथ सत्ता में आई हो। ऐसी सरकार जो भारतीय राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में आधारभूत बदलाव लाना चाहती है और ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि भाजपा मोदी सरकार के लिए दो से तीन और कार्यकाल चाहती है। फिर भाजपा के रणनीतिकार यह भी जानते होंगे कि लोकतंत्र का स्वभाव बड़ा चंचल होता है जहां कई बार मुश्किलें एकाएक दस्तक दे देती हैं और मुश्किलों का यह सिलसिला भी बड़ा लंबा खिंचकर ंअतहीन हो जाता है जैसा कि भी कांग्रेस पार्टी के साथ हो रहा है। ऐसे में भाजपा भले ही लंबे समय तक सरकार में बने रहने की रणनीति पर काम कर रही हो, लेकिन यह भी जरूरी हो जाता है कि सरकार के प्रदर्शन की नियमित रूप से परख होती रहे।
विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी सरकार का प्रदर्शन बेहद शानदार रहा है। हालांकि यह बात सरकार के आलोचकों के गले नहीं उतरेगी, लेकिन आप दुनिया के किसी भी कोने में जाइए तो आपको महसूस होगा कि तीन साल पहले नई दिल्ली के बारे में बनी धारणा ब काफी हद तक बदली है। नरेंद्र मोदी ने भारतीय हितों की इतनी मजबूती से पैरवी की जिसने तमाम विश्लेषकों को भी चैंकाया, क्योंकि जब उन्होंने सत्ता संभाली थी तो विदेश नीति के मोर्चे पर उन्हें कुछ भी नुभव नहीं था। इस दौरान वैश्विक मामलों में उन्होंने भारत की पूछ बढ़ाई है और यहां तक कि उनके विरोधी भी उन्हें इसका श्रेय देंगे। उनके कार्यकाल की शुरुआत में यही दलील दी गई कि मोदी भले ही बहुत तन्मयता और जोश के साथ विदेश नीति को आगे बढ़ा रहे हों, लेकिन उसमें कोई ठोस बदलाव नहीं पा पाएंगे। हद से हद शैलीगत बदलाव लाने में ही सफल हो रहे हैं। हालांकि इस सच से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि ताकतवर देशों में नेतृत्व के स्तर पर परिवर्तन होने से विदेश नीति में नाटकीय परिवर्तन नहीं होता। इसकी रूपरेखा तैयार करने में ढांचागत या बुनियादी कारक कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।
इसके उलट गर हम बारीकी से गौर करें तो पाएंगे कि इस दौरान भारतीय विदेश नीति में कुछ आमूलचूल बदलाव आए हैं। तीत में इससे पहले भारतीय कूटनीति ने वैश्विक स्तर आ रहे क्रांतिकारी बदलावों पर शायद ही कभी इतनी चतुराई से ताल बिठाई हो। ऐसे में मोदी सरकार भारतीय विदेश नीति के चक्र को सुचारू रूप से चलाने में जरा भी विचलित नहीं हुई है। भारत-मेरिका संबंधों को तेजी से आगे बढ़ाने में अब इतिहास की बात हो गई है। इजरायल के साथ भारत के संबंध भी आखिरकार मुखरता के साथ मजबूत हुए हैं। सबसे बड़ा बदलाव चीन के स्तर पर आया है जहां भारत ब चुपचाप नहीं बैठता और पने पड़ोसी को तल्ख तेवर दिखाने से गुरेज नहीं करता। गुटनिरपेक्षता को बड़े सलीके से दफन कर दिया गया है और ताकतवर देशों के साथ पारस्परिक व्यवहार के आधार पर ही कूटनयिक संबंध बनाए जा रहे हैं। गुटनिरपेक्षता के नाम पर नई दिल्ली लंबे समय से चीनी हितों की खुशामद में ही लगी थी। ब भारत चीन की परिधि में भी दबाव बनाने और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थायित्व के लिए मेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की तरह ताकत का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकता। हालांकि भारत में बु(िजीवियों का एक वर्ग आज भी मेरिकी विरोध की बांसुरी बजाने में ही मगन है, लेकिन उनकी परवाह न करते हुए मोदी ने पने निर्णायक जनादेश का इस्तेमाल मेरिका से संबंध मजबूत बनाने में किया है ताकि भारत की प्रगति के लिए उन्हें मेरिकी पूंजी और तकनीक का साथ मिल सके। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत और दादागीरी को चुनौती देने में वह किसी ऊहापोह के शिकार नहीं हैं।
इसका अर्थ है कि भारत के प्रतिद्वंद्वी देशों को ब विदेश नीति में भारत के बदले हुए तेवरों से दो-चार होना पड़ रहा है। इससे पहले चीन और पाकिस्तान की करतूतों के जवाब में भारत की ढुलमुल और पेक्षित प्रतिक्रिया ही नजर आती थी, लेकिन मोदी सरकार ने इन रिश्तों में चैंकाते हुए धारणा बदलने का काम किया है। इससे भारत को पने दांव चलने में काफी सामरिक गुंजाइश मिली है। भारत ब उन रास्तों से भी परहेज नहीं कर रहा जिनसे तीत में वह बचता आया है जिसका परिणाम यही होता था कि भारत की सैन्य कार्रवाई से भी पाकिस्तान साफ इन्कार कर देता था। लंबे समय तक पाकिस्तान ही सीमा पर भारत के धैर्य की परीक्षा लेता आया है, लेकिन ब तस्वीर उलट गई है। वन बेल्ट, वन रोड की चीनी मुहिम पर भी ऐसा ही हुआ जो चीन को यही संदेश देता है कि भारत ंतिम वक्त तक पने पत्ते नहीं खोलता और सीपीईसी के रूप में चीन-पाक सांठगांठ का कई तरह से जवाब दे सकता है। निश्चित रूप से चुनौतियां कम नहीं हैं। मोदी सरकार जोखिम लेने के लिए तैयार है और जोखिमों के साथ उनके लिए चुकाई जाने वाली कीमत भी जुड़ी होती है। इस समय पश्चिमी देशों में कई आधारभूत बदलाव आंतरिक राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल रहे हैं। साथ ही शक्तिशाली देशों के संबंधों में समीकरण भी बदल रहे हैं जिनसे भारत को पूरी गंभीरता के साथ निपटना होगा। जैसे चीन-रूस की बढ़ती नजदीकियां दीर्घावधि में भारत के हितों को काफी प्रभावित कर सकती हैं।
इसी तरह डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में चीन-मेरिकी संबंधों के भी परवान चढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। अगर भारत की आर्थिक बुनियाद ऐसे ही मजबूत बनी रही और वह पनी रक्षा नीति को सही आकार देने में सफल रहता है तो इससे उपजे आत्मविश्वास के दम पर भारत को इन चुनौतियों से निपटने में परेशानी नहीं होगी। कुल मिलाकर तीन साल पहले सत्ता संभालने के दौरान जिस नेता की प्रादेशिक सोच को लेकर आलोचना की जा रही थी, उसने भारतीय विदेश नीति को चरणब( रूप से उस निर्णायक दिशा में ग्रसर किया है जहां उनके पूर्ववर्तियों ने हिम्मत नहीं दिखाई। उनके आलोचक इससे सहमति जताएंगे, लेकिन सत्ता के शीर्ष पर कुछ वर्षो तक मोदी की मौजूदगी में भारतीय विदेश नीति निश्चित रूप से खासी लहदा नजर आएगी। भारतीय राजनीति का भी जिस दक्षिणपंथ की ओर निर्णायक झुकाव हुआ है वह भी एक आधारभूत बदलाव ही है जिसकी अनुगूंज दुनियाभर में सुनाई पड़ेगी। दुनिया के किसी भी कोने में जाएं तो आपको महसूस होगा कि तीन वर्षो में भारत के बारे में पुरानी धारणा अब काफी हद तक बदली है और इसका श्रेय मोदी को जाता है

















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