2014 के लोकसभा चुनाव की करारी पराजय

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में अगर कुछ लोग ऐसे हैं जो ईश्वर में विश्वास रखते है और मानते हैं कि वही परमात्मा कोई ऐसा करिश्मा करेगा जिससे कांग्रेस फिर से इस देश की सत्ता संभालेगी। ईश्वर में ऐसी शक्ति है भी जो तिनके को पहाड़ और पहाड़ को तिनका बना सकता है। ऐसे लोगों का विश्वास कायम रहे, फलीभूत भी हो लेकिन सच्चाई के धरातल पर खड़े होकर हम यही कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव की करारी पराजय के बाद कांग्रेस संभलना तो दूर बरकरार रहने में भी सफल नहीं हो पायी। असोम (असम), मणिपुर, उत्तराखंड जैसे राज्य उसके हाथ से छिन गये। कांग्रेस प्रत्येक अग्नि परीक्षा में असफल साबित हो रही है। वह मुख्य विपक्षी दल की भूमिका का भी ठीक से निर्वाह नहीं कर पा रही है।
विपक्ष को एक करने के प्रयास भी कांग्रेस में नहीं दिखाई पड़ते। सबसे चिंताजनक स्थिति तो उसके नेतृत्व को लेकर है। ऐसे हालात में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ;राजगद्ध की वह विकल्प कैसे बन जाएगी?पार्टी में संतोष करने की बात सिर्फ इतनी है कि 2014 में आजादी के बाद की सबसे करारी हार मिलने और एक-एक करके कई राज्य उसके हाथ से निकल जाने के बावजूद कांग्रेस में विघटन जैसी कोई समस्या नहीं आयी। उसके कई नेता पार्टी छोड़कर जरूर चले गये लेकिन ऐसी स्थिति तो चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों के सामने आती रहती है।देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में अगर कुछ लोग ऐसे हैं जो ईश्वर में विश्वास रखते है और मानते हैं कि वही परमात्मा कोई ऐसा करिश्मा करेगा जिससे कांग्रेस फिर से इस देश की सत्ता संभालेगी।
ईश्वर में ऐसी शक्ति है भी जो तिनके को पहाड़ और पहाड़ को तिनका बना सकता है। ऐसे लोगों का विश्वास कायम रहे, फलीभूत भी हो लेकिन सच्चाई के धरातल पर खड़े होकर हम यही कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव की करारी पराजय के बाद कांग्रेस संभलना तो दूर बरकरार रहने में भी सफल नहीं हो पायी। असोम (असम), मणिपुर, उत्तराखंड जैसे राज्य उसके हाथ से छिन गये। कांग्रेस प्रत्येक अग्नि परीक्षा में असफल साबित हो रही है। वह मुख्य विपक्षी दल की भूमिका का भी ठीक से निर्वाह नहीं कर पा रही है। विपक्ष को एक करने के प्रयास भी कांग्रेस में नहीं दिखाई पड़ते। सबसे चिंताजनक स्थिति तो उसके नेतृत्व को लेकर है। ऐसे हालात में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ;राजगद्ध की वह विकल्प कैसे बन जाएगी?पार्टी में संतोष करने की बात सिर्फ इतनी है कि 2014 में आजादी के बाद की सबसे करारी हार मिलने और एक-एक करके कई राज्य उसके हाथ से निकल जाने के बावजूद कांग्रेस में विघटन जैसी कोई समस्या नहीं आयी। उसके कई नेता पार्टी छोड़कर जरूर चले गये लेकिन ऐसी स्थिति तो चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों के सामने आती रहती है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस को फिर से उसी तरह मजबूत कर सकेंगी जैसा 2004 में उन्होंने किया था और पहली बार कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति में शामिल करके यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंमेंट ;यूपीएद्ध की सरकार बनायी जो एक दशक तक लगातार केन्द्र की सत्ता पर काबिज रही और कई राज्यों में भी कांग्रेस को सरकार बनाने में सफलता मिली। श्रीमती सोनिया गांधी का वह रणनीतिक कौशल एक मिसाल बन गया था और जब उन्होंने प्रधानमंत्री का ताज अपने सिर से उतार कर डा. मनमोहन सिंह के सिर पर रखा था तब तो देश-विदेश के मीडिया ने उनके इस त्याग की भरपूर सराहना की थी। इतिहास अपने को दोहराता है, यह मानने वाले श्रीमती सोनिया गांधी से उसी तरह की अपेक्षा करते हैं लेकिन इस बीच सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि कांग्रेस के सामने हाजिर जवाब नेता श्री नरेन्द्र मोदी हैं और श्रीमती सोनिया गांधी भी शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो गयी हैं। देश में क्षेत्रीय दलों ने श्री मोदी को कड़ी टक्कर देकर अपने को विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रखा है।
तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक ने भाजपा को सेंध लगाने से रोका तो पश्चिम बंगाल में सुश्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, ढाई दशक तक सत्ता संभालने वाली माकपा को एक कोने में सिमटा कर खड़ा कर दिया है। बिहार में जनता दल ;यूद्ध और राजद ने हाथ मिलाकर कांग्रेस को पीछे चलने पर मजबूर किया है। संभवतः एक कारण यह भी रहा कि तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, जनता दल ;यूद्ध एआई डीएमके, डीएमके, वामपंथी दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे मजबूत क्षेत्रीय दलों के रहते श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी भाजपा नीत गठबंधन सरकार के खिलाफ मौजू सवालों पर भी कड़ी चुनौती नहीं पेश कर पाते। दूसरी तरफ भाजपा उन सवालों को भी जनता के बीच पहुंचाने में सफल हो जाती है, जिनपर कांग्रेस अपना मजबूत पक्ष रख सकती है। मामला चाहे मोदी सरकार की नोटबंदी का हो, कश्मीर में लगातार बढ़ रहे आतंकवाद और अलगाववाद का हो अथवा नक्सली हमले में इजाफे का हो, कहीं पर भी कांग्रेस मजबूती से विरोध करती नजर नहीं आती है। इसके अलावा भी कई मामले है- जैसे अर्थ व्यवस्था की धीमी रफ्तार, सीमा पर से लगातार हमले और कथित गोरक्षकों के कारनामें- किसी भी मामले में कांग्रेस श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को घेरने में मजबूती से खड़ी नहीं हो पाती। कई अर्थ शास्त्रियों ने यह बात खुलकर कही है कि नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ी है। हालांकि वित्तमंत्री अरूण जेटली ने इसका खंडन करते हुए कहा कि आर्थिक विकास तेजी से होगा लेकिन कांग्रेस इस मुद्दे को नहीं उठा पाई। कश्मीर में हालात बद से बदतर हुए हैं। वहां भाजपा भी राज्य सरकार में शामिल है। पत्थरबाजी जैसी घटनाएं चिंताजनक रूप से बढ़ गयीं और कश्मीरी पंडितों को बसाने का मामला तो ठण्डे बस्ते में ही डाल दिया गया है। कांग्रेस की तरफ से कोई आवाज तक नहीं उठाई जा रही है।
पाकिस्तान की तरफ से लगातार गोलीबारी हो रही है। शहीद सैनिकों के साथ अमानवीयता पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी नहीं बोले तो यह अच्छा ही रहा क्योंकि उरी हमले के बाद उन्होंने शहीदों के खून की दलाली कहकर देश की जनता को नाराज कर दिया था। अभी हाल में केरल में कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने सड़क पर बछड़े को काटा तो भाजपा ने इस मुद्दे को उठा दिया लेकिन कांग्रेस अपनी सफाई भी ठीक से नहीं पेश कर सकी जबकि उन कांग्रेस नेताओं को तुरंत निलंबित कर दिया गया था। कांग्रेस अब तक यह भी नहीं समझ पायी कि भाजपा जानबूझ कर ऐसे मुद्दे उछालती है जिस पर कांग्रेस आपा खोकर खुद ही फंस जाए। मोदी के चाय बेचने से लेकर कितने मुद्दे अब तक आ चुके हैं। अब तो हालात ये हैं कि क्षेत्रीय छत्रप मुलायम सिंह यादव, एम करूणानिधि ममता बनर्जी और नीतीश कुमार व नवीन पटनायक जैसे नेता सोनिया और राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने में हिचकेंगे। राजद सुप्रीमों लालू यादव कभी श्रीमती सोनिया का खुलकर गुणगान किया करते थे, वे भी अब खामोश हैं। कांग्रेस के ही नेता रहे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के लिए श्रीमती सोनिया गांधी के अनुरोध को ठुकरा चुके हैं। नीतीश कुमार ने श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा बुलायी गयी बैठक में आने की जरूरत नहीं समझी जबकि दूसरे ही दिन वह श्री मोदी के उस भोज में शामिल हुए जो मारीशस के प्रधान मंत्री के सम्मान में दिया गया था।


















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