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प्रेरणादायक सीख Jawala
Home›प्रेरणादायक सीख Jawala›गाद को बहने दो

गाद को बहने दो

By vivekjwala
July 3, 2017
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सैंड, सेडिमेन्ट और सिल्ट यानी रेत, गाद और तलछट। सबसे मोटा कण रेत, उससे बारीक गाद और उससे बारीक कण को तलछट कहते हैं। रेत, स्पंज की तरह होता है। इस नाते रेत का काम होता है, नदी के पानी को सोखकर उसे सुरक्षित रखना। नदी से जितना अधिक गहराई से रेत निकालते जायेंगे, नदी की जलसंग्रहण क्षमता उतनी कम होती जायेगी। इसके मद्देनज़र गहराई का उचित आकलन कर ही रेत खनन को संचालित किया जा सकता है।  इसी कारण मध्य प्रदेश शासन ने आई.आई.टी खडगपुर की रिपोर्ट आने तक नर्मदा की मुख्य धारा में रेत खनन पर रोक लगा दी है। तलछट का काम होता है, नदी के तल में कटाव व ढाल की रूपरेखा तैयार करना। तलछट के साथ-साथ छेड़छाड़ करेंगे, तो नदी का बहाव और उसकी गति प्रभावित होगी। गाद को नदी के पानी के साथ क्रिया करके नदी जल की गुणवत्ता बढ़ानी है। गाद को नदी किनारे फैलकर, नदी का उपजाऊ मैदान बनाना है; मैदान को ऊंचा करना है। समुद्र किनारे डेल्टा का निर्माण करना है। समुद्र में मिलकर उन मूंगा भित्तियों का आवास बनाना है, जिन्हे कार्बन अवशोषण की सबसे उत्तम प्राकृतिक प्रणाली माना जाता है। इस सभी को करने के लिए गाद को बहकर आगे जाना है। इस नाते गाद, वरदान है। किंतु यदि यही गाद नदी मध्य में सिमटकर बैठ जाये, तो समस्या है। 
 
गाद जैसे ही नदी मध्य जमेगी, नदी का प्रवाह बदल जायेगा। नदी कई धाराओं में बंटेगी; किनारों को काटेगी; तबाही लायेगी। यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैली, तो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई… दोनो घटने लगेंगे। ऊंचाई घटने से किनारों पर बाढ़ का दुष्प्रभाव अधिक होगा। डेल्टा तक गाद नहीं पहुंची, तो डेल्टा भी डूबेंगे। कार्बन का 90 प्रतिशत अवशोषण समुद्र ही करता है। गाद को रास्ते में रोककर हम समुद्र की कार्बन अवशोषण शक्ति में घटायेंगे। परिणामस्वरूप, वायुमण्डल का ताप बढे़गा, मौसम बदलेगा और अंततः हम सभी उसके शिकार होंगे। 
स्पष्ट है कि वायुमण्डल के ताप, मौसम, उपजाऊपन, डेल्टा, बाढ़ के दुष्प्रभाव और नदी की जैव विविधता से गाद का बेहद गहरा रिश्ता है। इस रिश्ते के नाते गाद का नदी मध्य ठहर जाना, नदी के कम बहाव और अधिक मलीनता से कम गंभीर मुद्दा नहीं। उत्तर प्रदेश से पश्चिमी बंगाल तक गंगा मध्य रुक गाई गाद के कारण कटान का नया संकट पैदा गया है। माल्दा और मुर्शिदाबाद जिलों के कई गांव कटकर अपना अस्तित्व खो चुके हैं। जिस सुल्तानगंज में नदी कभी 80 फीट तक गहरी थी, वहां ऊपर उठा तल अब समस्या हो गया है। गाद नहीं पहुंचने के कारण, सुंदरबन का लोहाचारा द्वीप डूब चुका है। कई पर डूबने की चेतावनी चस्पां हो गई है। संकट, गंगा जलमार्ग परियोजना के अस्तित्व पर भी जा पहुंचा है। गंगा में जैव विविधता का संकट गहरा गया है, सो अलग।
 
समाधान पर पहुंचने से पहले एक बात सदैव याद रखने की है कि गंगा कोई एक नदी नहीं, गंगा बेसिन के सैकड़ों नदियों, प्रवाहों, वनस्पतियों, जीवों, सूरज, तल, मिट्टी, हवा और ग्लेशियर ने मिलकर इसका निर्माण किया है। इस भौतिक स्वरूप के मद्देनज़र, आज हमारे सामने गंगा गाद संकट के तीन समाधान हैं: पहला कि गंगा में आने वाली गाद की मात्रा नियंत्रित की जाये। दूसरा, गाद को गंगा में बहने दिया जाये। तीसरा यह कि गाद को गंगा किनारे के मैदानों पर फैलने से न रोका जाये। गाद समस्या से निपटने के लिए ये तीनो ही समाधान ज़रूरी हैं, लेकिन यह हों कैसे ? 
 
प्रथम समाधान
 
प्रथम समाधान हासिल करने के लिए समझना होगा कि बिहार की गंगा समेत कई मुख्य नदियों के मूल स्त्रोत हिमालय में स्थित हैं। हिमालय बच्चा पहाड़ है; अतः कच्चा पहाड़ है। हिमालय जितना हिलेगा, उतना झडे़गा। हिमालय में भूकम्प की आवृति जितनी बढ़ेगी, बिहार की नदियों में उतनी गाद बढ़ेगी। सुरंग, विस्फोट, चैड़ी सड़कें, जंगल कटान, अधिक निर्माण, अधिक वाहन, अधिक शोर, अधिक छेड़छाड़ – ये सभी हिमालय को हिलाने के काम हैं। जैसे ही हिमालय में उक्त गतिविधियां नियंत्रित होंगी; उ.प्र., बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल की गंगा में गाद की मात्रा स्वतः नियंत्रित होने लगेगी। नियंत्रण के लिए मिट्टी अपरदन रोकने का काम गंगा प्रदेशों को अपने-अपने भूगोल में भी करना होगा। वर्षाजल को धरती के पेट में बिठाकर, मिट्टी की नमी बढ़ाकर तथा छोटी वनस्पतियों का परिवार बढ़ाकर यह संभव है।
 
द्वितीय समाधान
 
यमुना मंे गाद को बहने के लिए 0.75 मीटर प्रति सेकेण्ड वेग का प्रवाह चाहिए। यह वेग ही है, जो किसी भी नदी की गाद की प्राकृतिक तौर पर निकासी यानी डेªजिंग करता रहता है। बांध-बैराजों के फाटक प्रवाह के वेग को इतना धीमा कर देते हैं कि गाद, पानी के साथ बह नहीं पाती। पानी आगे बह जाता है। गाद नीचे बैठ जाती है। फरक्का बैराज में 108 फाटक हैं। इन फाटकों के बीच जगह इतनी कम है कि गाद बैराज से पहले ही रुकने लगी है। इस रुकावट ने पटना, गाजीपुर तक गाद के प्रवाह की वेग को प्रभावित किया है। वेग बढ़ाने के लिए गंगा को 700 मीटर की चैड़ाई में बांध देने की वकालत करना अपने-आप में दूसरे विनाश को आमंत्रित करना है। गंगा को बहने देने के लिए तय करना होगा कि गंगा मध्य अब और बांध-बैराज न बनें। बन चुके बांध-बैराज सतत् इतना प्रवाह अवश्य छोड़ें, ताकि गाद का प्रवाह बाधित न हो। इसके लिए यदि डिजायन बदलना हो, तो बदले; ढांचे को ढहाना हो, तो ढहायें। 
प्रवाह बढ़ाने के लिए गंगा बेसिन की हर नदी और प्राकृतिक नाले में पानी की आवक भी बढ़ानी होगी। इसके लिए छोटी नदियों को पुनर्जीवित करना होगा। शोधित जल नहर में और ताज़ा पानी नदी में बहाना होगा। नदियों को सतह अथवा पाईप से नहीं, बल्कि भूगर्भ तंत्रिकाओं के माध्यम से जोड़ना होगा। जहां कोई विकल्प न हों, वहां छोड़कर अन्यत्र लिफ्ट कैनाल परियोजनााओं को न बोलना होगा। जलदोहन नियंत्रित करना होगा। वर्षा जल संचयन ढांचों से कब्जे हटाने होंगे। जितना और जैसा जल जिससे लिया, उसे उतना और वैसा जल वापस लौटाना होगा। गंगा और इसकी सहायक नदियों में रेत खनन नियंत्रित करने से नदी जलसंग्रहण क्षमता बढ़ेगी। इससे भी गंगा का प्रवाह बढ़ेगा।
 
नीरी नामक नामी संस्थान का मत यह है कि गंगा की कुल गाद का 0.1 से 0.2 तक प्रतिशत होने के बावजू़द यह कारण इसलिए है, चूंकि यह गाद में मिलकर यह सीमेंट की तरह सख्त हो जाता है और गाद को बहने से रोक देता है। कृत्रिम तौर पर गाद निकासी निश्चित तौर पर इसका समाधान नहीं है। नचिकेत केलकर की रिपोर्ट कहती है कि मशीनों द्वारा गाद निकासी के बाद भागलपुर में नदी मध्य गाद बढ़ी और किनारों पर घटी है। इस कारण डूब और कटान की समस्या और बढ़ी है। प्रो. कल्याण रुद्र की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि फरक्का बैराज से पहले हुगली में से एक वर्ष में जितनी गाद निकाली जाती है, उससे दोगुना जमा हो जाती है। कृत्रिम गाद निकासी के लिए तय 300-350 करोड़ का बजट व्यर्थ ही जाता है। इससे गंगा तल में इस छेड़छाड़ से जलजीवों के जीवन में दुश्वारियां और गंगा जल की गुणवत्ता में जो दुष्प्रभाव बढ़ रहा है, सो अलग है।
 
तृतीय समाधान
 
तीसरा समाधान हासिल करने के लिए से पहले जवाब चाहिए कि गंगा को नदी किनारे के मैदानों में बहने से रोका किसने है ? गाद को किनारे बहाकर ले जाने का काम बाढ़ का है। पहली रोक तो बाढ़ मुक्ति के नाम पर बने तटबंधों ने लगाई। यातायात सुविधा के नाम पर नदियों किनारे निर्मित और प्रस्तावित एक्सप्रेस-वे इस रोक को आगे चलकर और बढ़ायेंगे। दिल्ली-कोलकोता काॅरीडोर और ब्रह्मपुत्र राजमार्ग यही करेंगे। बहुत संभव है कि जलमार्गों में जहाजों के लिए प्रस्तावित बहुआयामी टर्मिनल भी यही करें। दूसरी रोक, लगाने का काम ‘रिवर फ्रंट डेवल्पमेंट’ के नाम पर नदियों को दो दीवारी चैनल में बांधने वाली परियोजनायें कर रही हैं। तीसरी रोक, नदी भूमि पर बढ़ते अतिक्रमण और निर्माण के कारण लगी है। पटना में राजेन्द्र नगर जैसी बसवाटों ने क्या किया है ? सारी सभ्यतायें नदी के ऊंचे तट की ओर बसाई गईं। हम निचले तट के ओर भी निर्माण कर रहे हैं। इस तरह नदी किनारे की प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली में अवरोध पैदा करके हमने चौथी रोक लगाई है। हमने छोटी-छोटी नदियों, नालों और प्राकृतिक तौर उबड़-खाबड़ भूगोल के जलनिकासी महत्व का समझे बगैर उन पर कब्जे और निर्माण नियोजित किए हैं। पांचवीं रोक, आने वाला मल है। छठी रोक का काम नदियों में अंधाधुंध रेत खनन ने किया है। रेत खनन, किनारों को गहरा करता है। गहरे किनारे गाद को फैलने से रोकते हैं। पहले आप्लावन नहरें पलट पानी और गाद को खेतों तक ले जाती थी। आप्लावन नहर प्रणाली अब लगभग नष्ट हो चुकी है। इनका नष्ट हो जाना गाद को फैलने देने में बाधक सातवीं रोक है। स्पष्ट है कि आप्लावन नहरें होंगी, तो गाद फैलेगी। रेत खनन घटेगा, तो गाद फैलेगी। गंगा बाढ़ क्षेत्र में निर्माण घटेगा, तो गाद फैलेगी। गंगा में मल घटेगा, तो गाद बहेगी।
 
शासकीय संजीदगी ज़रूरी
 
गौरतलब है कि बिहार सरकार ने गाद को समस्या को राष्ट्रीय पटल पर ले आने की शुरुआत कर दी है। व्यावहारिक प्रश्न है कि फरक्का बैराज के कारण ठहरी गाद समस्या से सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित तो पश्चिम बंगाल है; तो फिर पश्चिम बंगाल सरकार इस मुहिम से दूर क्यों भाग रही है ? फरक्का बैराज से आगे गाद कम जाने के कारण नुकसान, बांग्ला देश को भी है। चुप्पी वहां भी है। इसका एक कारण यह धारणा है कि बिहार सरकार, गाद और कटान के मुद्दे को उछालकर जलमार्गों के लिए अंतहीन कृत्रिम ड्रेजिंग  और दिल्ली-कोलकोता काॅरीडोर निर्माण का रास्ता साफ करने राजनीतिक खेल कर रही है। बिहार सरकार चाहिए कि वह इस धारणा को विराम दे। फरक्का बैराज की समीक्षा की मांग ज़रूर करे; उत्तराखण्ड और नेपाल से भी ज़रूर कहे कि वे अपने यहां भूस्खलन में लगाम लगायें; लेकिन इनसे पहले गाद संकट के उन सभी स्थानीय कारणों को समाप्त करने की पहल करे, जिनके लिए बिहार जल प्रबंधन कार्यक्रम स्वयं दोषी है; तभी उसकी संजीदगी सुनिश्चित होगी और समाधान में सभी की सहभागिता भी। क्या बिहार सरकार यह करेगी ?
 
( जनसत्ता से साभार )
लेखक: अरुण तिवारी
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