चतुर नीतीश का विरोध-दर्शन
विवेक ज्वाला ब्यूरो।
देशभर में इन दिनों राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा हो रही है। भाजपा नीत गठबंधन ने बिहार के राज्यपाल रहे रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया और 23 जून को उन्होंने अपना नामांकन पत्र भी भर दिया है। उनकी उम्मीदवारी को 28 राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व में 17 राजनीतिक दलों ने श्रीमती मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया है। श्रीमती मीरा कुमार पूर्व उपप्रधानमंत्री जगजीवन राम की बेटी हैं और बिहार की ही रहने वाली हैं। श्रीमती मीरा कुमार को विपक्षी दलों ने उम्मीदवार भी उन्हीं कारणों से बनाया है, जिन कारणों से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ;राजगद्ध ने श्री रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाया। इस चुनाव में सबसे ज्यादा उलझन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने है और अब वह विपक्षी दलों को अपना विरोध दर्शन समझाना चाहते हैं। नीतीश कुमार जी बहुत चतुर राजनीतिक हैं, इसमें कोई संदेह नहीं लेकिन उनकी नसीहत लोगों की समझ में नहीं आ रही है। उन्होंने श्री रामनाथ कोविंद को अपनी पार्टी जद;यूद्ध के समर्थन का वादा कर दिया लेकिन श्री रामनाथ कोविंद के नामांकन के दौरान न तो स्वयं पहुंचे और न किसी प्रतिनिधि को ही भेजा। इस दौरान उनका एक बयान जरूर आया जिसमें उन्होंने विपक्षी दलों को एक नसीहत दी है। श्री नीतीश कहते हैं कि विपक्षी एकता की पहल करने की हैसियत हमारे जैसे छोटे दल के नेता की नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष ने अपनी हार की रणनीति बनायी है।
श्री नीतीश कुमार कहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के मामले में विपक्ष ने जीत के बजाय पराजय की रणनीति बना ली है। उन्हें यदि विपक्ष की चिंता थी तो वह स्वयं उस बैठक में क्यों नहीं गये?उनकी सरकार के बड़े घटक राजद के नेता लालू प्रसाद वहां मौजूद थे। वामपंथियों समेत 17 विपक्षी दल एकजुट हुए तो श्री नीतीश को भी वहां जाकर कम से कम अपनी राय तो बतानी चाहिए थी लेकिन उन्होंने उस बैठक में जाना और अपना प्रतिनिधि तक भेजना उचित नहीं समझा। अब विपक्ष की तरफ से जब श्रीमती मीरा कुमार को प्रत्याशी घोषित कर दिया गया, तब वह कहते है कि बिहार की बेटी को हराने के लिए राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया गया है।
श्रीमती मीरा कुमार को वह बिहार की बेटी तो मानते हैं लेकिन उनकी मदद करने की हिम्मत नहीं हो रही है। श्रीमती मीरा कुमार की योग्यता और क्षमता पर सवाल उठाने की हिम्मत भी श्री नीतीश कुमार में नहीं है। श्रीमती मीरा कुमार 1970 बैच की सिविल सर्विसेज परीक्षा में पहले 10 रैंक में उत्तीर्ण हुई थीं और उन्होंने दलित कोटे का विकल्प नहीं चुना था बल्कि एक सामान्य प्रतियोगी की तरह परीक्षा पास की। इसी के बाद उनकी भारतीय विदेश सेवा में नियुक्ति हुई थी। समाजवादी विचारधारा के प्रति लगाव रखने वाली श्रीमती मीरा कुमार पांच बार सांसद रही हैं। कार्यपालिका और राजनीति का उन्हें पर्याप्त अनुभव है। श्री नीतीश कुमार को अपना समर्थन देने से पहले कुछ दिन इंतजार करना चाहिए था। यह सच है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा को निर्देशित किया था कि राष्ट्रपति पद के लिए योग्य व्यक्ति को ही प्रत्याशी बनाना। बताया जाता है कि संघ किसी पिछड़ी जाति के व्यक्ति को प्रत्याशी बनाए जाने के पक्ष में था लेकिन श्री मोदी और अमित शाह की रणनीति में दलित नेता ज्यादा मुफीद रहेगा और संघ के निर्देशों को भी ध्यान में रखते हुए रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाया गया। श्री नीतीश कुमार को विपक्ष की एकता का यदि ख्याल था तो उन्हें यह भी देखना चाहिए था कि विपक्ष किस प्रत्याशी को उतारेगा। श्री रामनाथ कोविंद को समर्थन देने की इतनी जल्दी उन्हें क्यों थी?अब कह रहे है कि जद(यू) ने बहुत सोच समझ कर ही फैसला लिया है और इसकी जानकारी कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को दे दी गयी थी। श्री नीतीश यह नहीं बताते कि क्या श्रीमती सोनिया गांधी और लालू प्रसाद यादव ने उनसे कहा था कि विपक्ष कोई उम्मीदवार ही नहीं उतारेगा?
श्री नीतीश कुमार की यह बात भी किसी के गले नहीं उतर रही है कि विपक्षी एकता की पहल करने की हैसियत हमारे जैसे छोटे दल में नहीं है। यह पहल बड़े दल के नेताओं को करनी चाहिए। वह कहते हैं कि हमने एक पहल 2014 में की थी लेकिन उसमें कामयाब नहीं हुए। नीतीश जी आगे की राजनीति पर बात क्यों नहीं करते और बिहार में आज वह मुख्यमंत्री इसी विपक्षी एकता के सहारे ही बने हुए हैं। वे उस राजनीति के पन्ने बड़ी होशियारी से पलट देते हैं जब उन्होंने भाजपा का विरोध ही श्री नरेन्द्र मोदी के चलते किया था। उन्हें भाजपा से कोई दिक्कत भी नहीं थी, परेशानी थी सिर्फ नरेन्द्र मोदी से। पटना में भाजपा की रैली के दौरान जब उनका फोटो श्री नरेन्द्र मोदी के साथ छाप दिया गया तो उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया था और साझे की सरकार होते हुए भी रैली में शामिल नहीं हुए थे। इसके बाद का समय भी श्री नीतीश कुमार को याद रखना पड़ेगा। भाजपा के समर्थन वापस लेने के बाद जद(यू) की सरकार कांग्रेस और लालू यादव के समर्थन से ही बनी थी। दलित नेता जीतन राम मांझी को श्री लालू यादव ने ही मुख्यमंत्री बनवाकर जद(यू) की सरकार बचायी और उन्होंने ही श्री मांझी को हटाकर फिर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनवाया था। श्री नीतीश कुमार 2014 में विपक्षी दलों की एकता को असफल करार देते हैं लेकिन इसके बाद बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन कैसे बना था, यह बात वे भूल जाते हैं। उस समय जद(यू) में इतनी क्षमता थी कि वह महागठबंधन बनाने के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को जोड़ सकती थी लेकिन अब जद(यू) एक छोटा दल हो गया है और श्री नीतीश कुमार यह भी कहते हैं कि विपक्षी एकता की पहल करना जद(यू) जैसे छोटे दल के नेता के वश में नहीं है, इसकी पहल बड़े दल के नेताओं को करनी चाहिए।
यह बात भी राजनीति में रुचि रखने वालों को पता होगी कि बिहार विधान सभा चुनाव के बाद वहीं से विपक्षी एकता का बिगुल बजाया गया था। पहले श्री लालू यादव ने यह अभियान लालटेन लेकर चलाने की कोशिश की और बाद में श्री नीतीश कुमार ने राज्य में शराबबंदी की घोषणा करके विपक्ष को एक करने का प्रयास किया था। नीतीश कुमार जी तब कहा करते थे कि भाजपा कांग्रेस मुक्त देश बनाना चाहती है और हम शराब मुक्त भारत का निर्माण करने जा रहे हैं। यह बात भी याद करने की है कि बिहार विधान सभा में लालू यादव के विधायकों की संख्या ज्यादा है और नीतीश के जद(यू) के विधायक कम हैं। चारा घोटाले में लालू यादव को सजा न मिली होती तो शायद बिहार के मुख्यमंत्री भी लालू प्रसाद यादव ही होते। इस लिए श्री नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एक करने में हमेशा अपना स्वार्थ देखते रहे और आज भी उन्हें लग रहा कि भाजपा को देश भर में स्वीकार कर लिया गया है तो वह उन्हीं मोदी का समर्थन कर रहे हैं जिनका कभी वह प्रबल विरोध करते थे।
यह सच है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता है लेकिन कुछ बातें राजनेता कभी नहीं भूलते हैं। श्रीमती सोनिया
गांधी जिस तरह अब तक नहीं भूली हैं कि श्री मुलायम सिंह ने उन्हें विदेशी मूल की महिला कहकर सरकार बनाने में बाधा डाली थी और मुलायम सिंह भी यह बात जब-तब याद कर लेते है कि लालू प्रसाद यादव ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था, उसी तरह श्री मोदी भी यह बात नहीं भूले हैं कि नीतीश कुमार ने उन्हें पोस्टर में फोटो छपने से ही अछूत करार दिया था। भाजपा के लिए बिहार में सुशील मोदी जितने महत्वपूर्ण है, उतने नीतीश कुमार नहीं हो सकते। नीतीश को विपक्ष का महत्व समझना ही होगा। यदि वह चाहते है कि 2019 के लिए विपक्ष को जीत की रणनीति बनानी है तो पहले उन्हें ही यह तय करना होगा कि वे विपक्ष के साथ हैं अथवा श्री मोदी की शरण में जाना चाहते हैं।