पशुओं को जीवन यात्रा पूरी करने का अधिकार क्यों नहीं?
विवेक ज्वाला ब्यूरो। गोमांस खाने को मौलिक अधिकार बताया जा रहा है। पशु क्रूरता अधिनियम के अधीन जारी नियमावली के विरोध में केरल में बछड़े काटे गये और बीफ पार्टी हुई। भारत का मन आहत है। मानवाधिकार सभ्य समाज का आदर्श है। यह आदर्श व्यापक है। रक्तपात और भयंकर हिंसा के दोषी आतंकवादी भी इस अधिकार से आच्छादित हैं। यहां अपराधियों के भी मानवाधिकार हैं लेकिन मनुष्येतर निर्दोष अन्य प्राणियों को जीवन का सामान्य अधिकार भी नहीं है। गाय आदि पशु जीवन के सामान्य अधिकार से भी वंचित है। मनुष्य संगठित है। दावा है कि सभ्यता और संस्कृति में लगातार विकास हुआ है। इसलिए फांसी की सजा को भी समाप्त करने पर तर्क हैं। सभ्यता का ऐसा विकास आश्चर्यजनक है। आधुनिक सभ्यता प्रकृति के पांच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को भी जीवन का मौलिक अधिकार नहीं देती। अस्तित्व में अनेक जीव हैं। मूलभूत प्रश्न है कि इन्हें जीवन का सामान्य अधिकार क्यों नहीं?यहां केवल मनुष्य के ही अधिकार क्यों हैं?ऐसी सभ्यता ‘शक्तिशाली के अस्तित्व’ को स्वीकारती है।
मनुष्य शक्तिशाली है। उसने अपने लिए मानवाधिकार गढ़े। शेष जीवों और प्रकृति की शक्तियों को अपनी उपभोक्ता सामग्री बनाया। वनस्पतियां क्यों नहीं जी सकतीं पूरी उम्र?नदियां क्यों अपने मनचाहे मार्ग से नहीं बह सकती?मैना या कोयल क्यों नहीं गा सकते अपने गीत?मोर क्यों नहीं नाच सकते अपनी परिधि तोड़कर?गोवंश अपना जीवन चक्र क्यों नहीं पूरा कर सकते और भैंस या ऊंट भी क्यों नहीं?आत्मीयता प्रकृति है। क्रूरता मानसिक विकृति है। सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति आत्मभाव और आत्मीय आचरण संस्कृति है। भोग दुखी करता है और योग आनंद का मार्ग। भारतीय परम्परा भोगवादी नहीं है। यूरोप की जीवनदृष्टि भोगवादी है और भारत की संयमी। भोग भयावह है। 2014 में पशुवधशालाओं में जानवरों के मारे जाने के तरीके पर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका थी। केन्द्र सरकार की तरफ से कहा गया था कि “खाद्य सुरक्षा कानून में मांस के लिए पशुओं को मारने और काटने का तरीका सुनिश्चित है।
बूचड़खानों में मांस के लिए पशुओं को मारने से पहले उन्हें बेहोश किया जाना अनिवार्य है। इससे पशुओं को कष्ट नहीं होता।” सरकारी जवाब में मारने के पहले बेहोशी के लिए पशुओं के सिर पर बिजली का करेंट देने आदि के उल्लेख हैं।” मारे जाने के कानूनी तरीके की खबर छपी। समाचार ने कई दिन तक बहुत गहरे उद्वैलित किया। केरल की ताजा क्रूरता से और भी आहत हूं। मेरे चित्त में जब-कब अबोध जानवरों की निर्दोष सजल आंखें ही दिखाई पड़ रही हैं। आहत मन पशुवधशाला में चला जाता है। गाएं, भैसें पंक्तिबद्ध हैं। निर्दोष, निश्छल, लाचार, निरूपाय। उनके सिर पर यों ही बिजली का करेंट। बिना किसी अपराध के ही। फिर गर्दन पर आरा और रक्तधारा। मांस लोभी हमारा रक्त चरित्र। हमारे जैसे संवेदनशील असहाय और लाचार हैं। लगता है कि हम सब भी उसी कतार में खड़े हैं। अपनी बारी की प्रतीक्षा में। सिर पर करेंट है। आरा चला कि रक्त धारा बह रही है। आंखों में अश्रुधार नहीं है। सूख गयीं हैं आंखे। पशुओं, पक्षियों को देखना आनंददायी है। देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है। किसान उन्हें प्यार करते हैं, उनसे काम भी लेते हैं।
यह उपयोगितावादी दृष्टि है लेकिन पशु अपनी जीवनयात्रा पूरी कर लेते हैं। सुधीजन सांस्कृतिक प्रवाह में उन्हें प्यार करते हैं। भोजन देते हैं। गांधी जी ने एक गंभीर बात कही थी – यह धरती सबको भोजन दे सकती है लेकिन हवस नहीं पूरी कर सकती।” राम और कृष्ण भारत के मन के महानायक हैं। राम गो उपासक हैं, पशुधन रक्षक हैं। श्रीकृष्ण सीधे गोपाल हैं। उनके ही देश में पशुधन पर आरे चल रहे हैं। ऋग्वेद के समय हमारे पूर्वज सतर्क थे। उन्होंने कहा “गाय अबध्य है, जो गोहन्ता है, उन्हें दंडित करो। गोशाला बनाओ। आदर करो गाय का, गोवंश का। सभी प्राणियों का।” संवेदनहीन भौतिकवादी इसे धर्म भाग कहेंगे। अहिंसा धर्म है तो बुरा क्या है। प्राणि रक्षा भारतीय धर्म का भाग है, लोकजीवन की अपनी प्राथमिकता भी है। निर्दोष पशुओं के वध को लेकर व्यथा गहरी है। पशु संरक्षण कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है। हम परम्परा से ही सभी प्राणियों के हितैषी हैं। आखिरकार प्राण और शरीर का योग ही प्राणी है। प्राण-शरीर का योग जीवन है और वियोग मृत्यु। प्राण अदृश्य हैं लेकिन प्राण की पुलक ही काया में प्रकट होती है। शरीर और प्राण मिलाकर ही प्राणी गति करते हैं। पेड़, पौधों की संवेदनशीलता आधुनिक विज्ञान की पकड़ में आ चुकी है। वे लकड़कटा मनुष्य को दूर से ही पहचान लेते हैं। उसे देखकर दुखी होते हैं और पानी देने वाले माली को देखकर खिल भी उठते हैं। गाय, बैल, भैंसे, बकरियां भी संवेदनशील हैं। वे दूर से ही कसाई और पालक में भेद कर लेते हैं। पशु वधशाला ले जा रहे पशु के नेत्र सजल होते हैं। ऐसा वाहन देखकर ही चित्त में भूकम्प उठता है। आंसुओं का ज्वार और कायरता का भाटा। पशु जगत् के पास जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है।
मांस खाने की उपयोगिता या अनुपयोगिता पर बहस की गुंजाइश है लेकिन अपनी स्वाद लालसा के चलते किसी प्राणी को जीवन से ही वंचित करना कहां का न्याय है?जीवन का अधिकार प्राकृतिक है। हमारी क्षुधा असीम है। हमको पूरी धरती चाहिए, जल, जंगल, जमीन और आकाश, ग्रह, उपग्रह भी चाहिए। हमारी भूख गाथा असीम और अनंत है। व्यथित प्रश्न यह है कि हम धरती आकाश, वनस्पति, जल, अग्नि ऊर्जा आदि सारे भूत हड़पने के बावजूद इस सुन्दर अस्तित्व के जीवों को भी क्यों खा रहे हैं?वे भी अपना जीवन यहां क्यों नहीं पूरा कर सकते?बहस शाकाहार बनाम मांसाहार की नहीं है। प्रश्न ‘अस्तित्व’ का है। अस्तित्व गलती नहीं करता। सभी जीव अस्तित्व का ही भाग है। प्रकृति में विविधता है। विविधता सतत् प्रवाही है। अस्तित्व के हरेक जीव को जीवन का मौलिक अधिकार है। यह अधिकार अस्तित्व ने दिया है। निस्संदेह विराट प्राणि जगत् में तमाम अन्तर्विरोध हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।
भारतीय चिन्तन में इसे ‘मत्स्य न्याय’ कहा गया है। इसकी निन्दा की गयी है। जंगल में भी ताकतवर कमजोरों को निगल जाते हैं। इसे जंगलराज कहा जाता है। राजनैतिक कार्यकर्ता विपक्षी दल की सरकारों पर जंगलराज का आरोप लगाते हैं। जंगलराज बुरा है। जंगल में भी मंगल हमारी सनातन अभिलाषा है। जीवन प्रकृति की उमंग का विस्तार है। प्रकृति ही एक निश्चित समय पर जीवन को वापस लेती है। हरेक पौधा, पशु, पक्षी या कोई भी जीव नदी, ओसकण या नन्हा सी कीट सबके सब प्रकृति की सृजन शक्ति का ही विस्तार है। मनुष्य अपनी युक्ति शक्ति के कारण सब पर भारी है। इसी शक्ति के चलते वह डायनामाइट से पहाड़ गिरा देता है और पहाड़ का जीवन नष्ट हो जाता है। जल कण का भी व्यक्तित्व है। मनुष्य इस व्यक्तित्व में जहर घोलता है। गोवंश कटता है। सबको आहत करता है।