चीन से कितने मतभेद दूर करेंगे मोदी
विवेक ज्वाला ब्यूरो: पड़ोसियों से संबंध रखना हमेशा हितकर ही होता है। बकौल पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ‘हम अपना घर बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते।’ और घर भी बदलना क्या इतना आसान होता है। एक शायर ;मुनव्वर रानाद्ध ने ठीक ही कहा है सदियां गुजर जाती हैं, एक घर बसाने में…। इससे पड़ोसी के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। शहर में रहने वालों को तो इसका बहुत अच्छी तरह अनुभव होता है कि मुसीबत पड़ने पर पड़ोसी पहले आता है और घर-परिवार के लोग बाद में पहुंचते हैं। इस सामाजिक प्रासंगिकता के साथ ही देश के साथ भी यही नियम लागू होता है। हमारे देश के पड़ोसी हैं पाकिस्तान, बांग्लादेश चीन, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार। इन सभी देशों से अच्छे संबंध बनाने का प्रयास किया जाता है। सबसे ज्यादा परेशानी दो पड़ोसी खड़ी करते रहते हैं- यह है पाकिस्तान और चीन। पाकिस्तान के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। उसने तय कर रखा है कि भारत के खिलाफ कोई न कोई हरकत करता ही रहेगा। कश्मीर जैसे मुद्दे को उसने अपने विरोध का हथियार बना रखा है। दूसरा पड़ोसी चीन अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शिकार है और उसे लगता है कि समुद्र से लेकर आस-पास सब कुछ हमारा है। उसने नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि में अपनी पकड़ मजबूत करने का अभियान चला रखा है।
भारत के प्रधानमंत्री इन दिनों कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में गये हुए हैं जहां शंघाई सहयोग संगठन ;एससीओद्ध की बैठक हो रही है। श्री मोदी के एजेंडे में उसी बैठक के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी वार्ता करने का मुद्दा भी शामिल है। अजहर मसूद और एनएसजी में भारत की सदस्यता जैसे मामलों पर चीन को राजी कर लेने से ही श्री मोदी का मकसद हल हो जाएगा। चीन ने सन् 1962 में जब भारत पर हमला किया और हमारी हजारों वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर लिया था, तभी से इस पड़ोसी मित्र की नीयत का पता चल गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तो चीन को अपन परम मित्र समझते थे और चीन ने जैसा व्यवहार किया, उसी के सदमें में पंडित नेहरू बीमार पड़ गये थे। तब से लेकर आज तक चीन की नीयत में कोई बदलाव नजर नहीं आया। हालांकि भारत-चीन के बीच जमीं बर्फ को पिघलाने का प्रयास सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने किया था और वह बीजिंग जाकर भारत-चीन के बीच व्यापारिक रिश्ते सुधारने के अग्रदूत भी बने। भारत-चीन के बीच व्यापार शुरू हुआ। कई दर्रों को व्यापार के लिए खोला गया और कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी शुरू हो गयी लेकिन चीन की बदनीयती समय≤ पर तब जाहिर हो जाती है जब वह अरुणाचल और सिक्किम प्रदेश पर अपना अधिकार जताने लगता है। उसने पाकिस्तान में रह रहे आतंकवादी अजहर मसूद को संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अन्तरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने में अडंगा डाल रखा है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन भी उन राष्ट्रों में शामिल है जिनको वीटो पावर मिला है अर्थात् किसी भी प्रस्ताव पर वीटो का प्रयोग करके उसे रोका जा सकता है। इसी तरह भारत को एनएसजी की सदस्यता में चीन इसलिए बाधा डाल रहा है कि भारत ने परमाणु निषेघ संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में शामिल सभी राष्ट्र परमाणु बमों से सम्पन्न हैं और भारत की मुख्य आपत्ति भी यही है कि या तो सभी देश पूरी तरह परमाणु हथियारों से मुक्त हो जाएं या फिर शांति के लिए परमाणु शक्ति का उपयोग करने पर कोई प्रतिबंध न लगे। श्री मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को कहां तक समझा पाते हैं, यह अस्ताना में पता चल जाएगा। चीन अपनी विस्तारवादी नीति के तहत ही पाकिस्तान नेपाल, श्रीलंका और अफ्रीका में भी पैर पसार रहा है। इसके बाद भी चीन रुकेगा, ऐसी संभावना नहीं दिखती। अफ्रीकी देश जिबूती में चीन समुद्र पर अपना कब्जा करने के लिए नेवी बेस बना रहा है। इससे भारत ही नहीं समूचे विश्व के लिए सामरिक चुनौतियां पैदा हो सकती हैं। दरअसल, चीन की मंशा यह है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्घ्था बन जाए। सामरिक दृष्टि से अब विश्व दो ध्रुवीय व्यवस्था वाला नहीं रह गया है जब सोवियत संघ और अमेरिका के सैन्य संगठन नाटो और सीटो अपना साम्राज्य कायम किये हुए थे। अब तो छोटा सा इजराइल भी इतनी सामरिक क्षमता रखता है कि किसी भी देश का हमला नाकाम कर दे।
उत्तर कोरिया जैसे देश परमाणु मिसाइलों से दुनिया भर के देशों को निशाना बना सकते हैं। इसलिए आर्थिक शक्ति ज्यादा बड़ी हो गयी है। चीन का इरादा यह भी है कि आर्थिक ताकत के साथ व सैन्य बल में भी आगे रहे। इसके लिए अत्याधुनिक रक्षा तकनीक के साथ समुद्र पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करना उसकी रणनीति में शामिल है। दक्षिण चीन सागर में अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला भी वह मानने को तैयार नहीं है। इसी रणनीति के तहत चीन पाकिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और थाईलैण्ड में कई बड़ी-बड़ी विकास योजनाएं चला रहा है। अफ्रीकी देश जिबूती में नौसैनिक अड्डा बनाने के पीछे भी असली मकसद यही है। हालांकि इस नौसैनिक अड्डे के बारे में चीन का तर्क है कि वह समुद्री लुटेरों पर नियंत्रण करने के लिए यह अड्डा बना रहा है और सोमालिया में समुद्री लुटेरों के गढ़ को समाप्त करना चाहता है लेकिन सच्चाई यह कि हिन्द महासागर के तटीय देशों और अफ्रीकी देशों में वह अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भी चीन की मंशा को समझता है लेकिन भारत के विरोध में वह इतना अंधा हो गया है कि चीन की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को भी नजरंदाज कर रहा है। पाकिस्तान के साथ एक समस्या यह भी है कि वह अपने को इस्लामिक देशों का मुखिया बनाना चाहता है जबकि ईरान, सऊदी अरब आदि के रहते यह कतई संभव नहीं है। पाकिस्तान सोचता है कि चीन की मदद से वह अपनी यह इच्छा पूरी कर सकता है। इसी सोच के चलते पाकिस्तान ने अमेरिका को भी विशेष महत्व दे रखा है। अमेरिका ने भले ही उसकी सीमा में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार गिराया लेकिन पाकिस्तान ने चूं तक नहीं किया। चीन पाकिस्तान में अपना सैन्य अड्डा बनाकर अपने कई स्वार्थ सि( करना चाहता है। सबसे पहले तो वह भारत पर दबाव बनाने का प्रयास करेगा। अजहर मसूद के मामले को उसने इसीलिए लटकाया है। चीन को पाकिस्तान की सेना की कमजोरी भी पता है और सरकार पर सेना के दबाव का भी उसे अंदाजा है। इसलिए पाकिस्तान में अपना सैन्य अड्डा बनाकर चीन निर्णायक दखल दे सकेगा। गिलगिट, बाल्टिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेना की गतिविधियां शुरू हो गयी हैं जो भारत के लिए चिंता का विषय है।श्री मोदी यदि चीन को पाकिस्तान में जमने से रोक नहीं पाते तो कम से कम यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि चीन पाकिस्तान में सैन्य अड्डा बनाकर उन आतंकियों पर नियंत्रण करेगा जो उसके देश में शिन जियांग समेत अन्य स्थानों पर अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। आतंकवाद और समुद्री लुटेरों को नियंत्रित करने तक ही चीन सीमित रहे तो इसमें पूरी दुनिया का भला है। इस भावना के तहत ही चीन को अजहर मसूद के बारे में भी अपना फैसला बदल देना चाहिए और भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का सदस्य बनने में मदद करनी चाहिए। श्री मोदी इस मामले में कितना सफल हो पाते हैं, यह शंघाई सम्मेलन में स्पष्ट हो जाएगा।