हर मिसरे में घुल जाता है लावण्य तुम्हारा
कविता ने तुम्हारा कितना ख़्याल रक्खा है
कि हर एक शब्द को सँभाल रक्खा है
स्वर उठे तो नाज़ बने,व्यंजन उठे तो नखरे
हर वर्तनी को करीने से देख-भाल रक्खा है
हर मिसरे में घुल जाता है लावण्य तुम्हारा
हर्फ़ों में छुपा मतलब क्या कमाल रक्खा है
जो जवाब निकल के आए दिल से तुम्हारे
मैंने खोज-खोज के वही सवाल रक्खा है
क्या अलंकार,क्या रस और क्या श्रृंगार
हुश्न के हर सलीके को निकाल रक्खा है
सलिल सरोज