सियासत से भरी कोविंद की उम्मीदवारी
विवेक ज्वाला ब्यूरो।
भाजपा ने विपक्षी दलों को एक बार फिर पटकनी दे दी है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षीदल जहां आपस में उलझे रहे और किसी एक के नाम पर सहमत नहीं हो पाये, तब तक भाजपा ने बिहार के मौजूदा राज्यपाल रामनाथ कोविंद को अपनी तरफ से प्रत्याशी घोषित कर दिया। श्री रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने पर यदि विपक्षी दल एतराज करते हैं, तब भी जनता के बीच उनकी पराजय है क्योंकि भाजपा ने कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों से कहा था कि आप लोग अपनी तरफ से राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बताएं लेकिन श्रीमती सोनिया गांधी किसी नाम को नहीं बता सकी थीं। उस समय यदि विपक्षी दल की तरफ से राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित किया जाता तो भाजपा का समर्थन देना नैतिक जिम्मेदारी बन जाती। हालांकि राष्ट्रपति सत्तारूढ़ दल की मर्जी का ही चुना जाता है लेकिन भाजपा को इस नैतिक जिम्मेदारी से विपक्ष ने ही बचा लिया। भाजपा ने उस बिहार से राज्यपाल को यह सौभाग्य दिया है जहां भाजपा नीतीश कुमार और लालू यादव के महा गठबंधन को कमजोर करना चाहती है। इसी तरह भाजपा अपने साथ दलित वोट को मजबूत करना चाहती है और उत्तर प्रदेश में पूरी मजबूती से टिकने के लिए दलितों का साथ जरूरी है, तो यूपी के ही कानपुर निवासी दलित नेता रामनाथ कोविंद से बेहतर कौन उम्मीदवार हो सकता था। इससे सबसे ज्यादा चिंतित बसपा प्रमुख सुश्री मायावती होंगी क्योंकि विपक्ष के नाते वे एक दलित को समर्थन देने से इनकार नहीं कर पाएंगी। हालंाकि यह मजबूरी सभी राजनीतिक दलों के साथ होगी और कोई भी अपने ऊपर यह आरोप नहीं लगने देगा कि उसने राष्ट्रपति के लिए दलित उम्मीदवार का विरोध किया।
कई दिनों से चले आ रहे विचार मंथन के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा की तरफ से बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर दी। मजेदार बात यह कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारों में जिनका नाम चल रहा था, उनमें श्री रामनाथ कोविंद शामिल नहीं थे। सबसे पहले श्री मोदी ने ही कहा था कि वे पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी को गुरू दक्षिणा के रूप में राष्ट्रपति बनाना चाहता हूं। उस समय यही अर्थ लगाया गया था कि श्री आडवाणी राष्ट्रपति बनेंगे लेकिन अयोध्या मामले को लेकर आशंका थी और वो सच भी साबित हुई। श्री आडवाणी समेत लगभग डेढ़ दर्जन लोगांे के खिलाफ मुकदमा चलाने का फैसला सुनाया गया। इसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का नाम उछला और शिवसेना ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाने की आवाज उठाई। श्री भागवत ने खुद ही मना कर दिया। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के नाम पर भी चर्चा चली। उधर, विपक्ष की तरफ से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार का नाम उछाला गया। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी चाहती थीं कि श्री शरद पवार राष्ट्रपति बनने के लिए राजी हो जाएं लेकिन श्री पवार जानते थे कि चुनाव होगा तो उन्हें पराजय का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए वे भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। भाजपा विपक्ष की गतिविधियों पर पूरी तरह से नजर रखे थी और उसने जैसे ही देखा कि शार्ट पिच गेंद है, तो सिक्सर मारने में देरी नहीं की।
विपक्षी नेताओं में इससे खलबली मची है। श्री रामनाथ कोविंद मौजूदा समय में बिहार के राज्यपाल है और नीतीश कुमार की सरकार के साथ उनमें मतभेद भी कभी सामने नहीं आए। उनका उत्तर प्रदेश से गहरा संबंध है क्योंकि यहीं के कानपुर के वह निवासी हैं। वे दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करते है। उनके पास राजनीति का पर्याप्त अनुभव भी है। श्री कोविंद दो बार राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं उन्हें कानून का भी विस्तृत ज्ञान है। सरकारी वकील रहे है और 1971 में उन्हें बार काउंसिल के लिए नामांकित किया गया था। श्री कोविंद ने दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में 16 साल प्रैक्टिस की हे। श्री राम कोविंद का जन्म एक अकटूबर 1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले में हुआ था। उन्होंने कानपुर यूनिवर्सिटी से ही बी काम और एलएल बी की पढ़ाई की। गवर्नर आफ बिहार की वेवसाइट के मुताबिक रामनाथ कोविंद दिल्ली हाईकोर्ट में 1977 तक केन्द्र सरकार के वकील रहे थे। वे 1980 से 1993 तक केन्द्र सरकार के स्टैण्डिग काउंसिल मंे भी रहे। श्री कोविंद 1994 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए सांसद चुने गये। इस प्रकार 12 वर्ष तक राज्यसभा में रहकर उन्होंने कई संसदीय समितियों के सदस्य का दायित्व भी संभाला। इन समितियों में आदिवासी कल्याण, होम अफेयर, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, सामाजिक न्याय कानून न्याय व्यवस्था और राज्य सभा हाउस कमेटी के भी चेयर मैन रहे।
इस प्रकार श्री कोविंद अनुभव और ज्ञान में भी राष्ट्रपति पद के लिए पूरी तरह योग्य हैं। अब विपक्षी दलों में कौन ऐसा है जो एक दलित नेता को इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठाने का विरोध करेगा। पिछले लगभग दो साल से दलित राजनीति ने धूम मचा रखी है। बाबा अम्बेडकर की जयंती तो धूमधाम से मनायी ही जाती थी, अब वाल्मीकि जयंती भी देश भर में मनायी जाने लगी है। दलितों को अपना वोट बैंक मानने वाली बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती अपनी पार्टी से निकल कर भागने वाले नेताओं से ही परेशान थीं। भाजपा ने जब से दलितों के साथ भोजन करने का अभियान चलाया, तब से उनकी बेचैनी और बढ़ गई है। वे रोहित बेमुला और गुजरात के उनाकाण्ड को बार-बार उछालना चाहती हैं लेकिन यह गुब्बारा ऊपर उठ ही नहीं पाता। अभी कुछ दिन पहले ही सुश्री मायावती ने लखनऊ में बयान जारी किया था कि भाजपा नेताओं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा दलितों के साथ सहभोज राजनीतिक नाटकबाजी है। उन्होंने कहा था कि दलितों के मामले में भाजपा सरकार की नीति और नीयत में यदि थोड़ी सी भी सच्चाई और ईमानदारी होती तो सहारनपुर का जातीय दंगा कभी भी इतना गंभीर रूप नहीं लेता। अब सुश्री मायावती यदि श्री रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी का विरोध करती हैं तो यही बात उन पर लागू हो
जाएगी। दलितों का हित कौन
चाहता है, यह कहानी भूतनाथ और चन्द्रकांता के तिलिस्म से कम रहस्यपूर्ण नहीं है लेकिन इस तिलिस्म को वीरेन्द्र सिंह बन कर भाजपा ने ही तोड़ दिया है।