पर्यावरण और विकास
पर्यावरणीय समृद्धि की चाहत, जीवन का विकास करती है, विकास की चाहत, सभ्यताओं का। सभ्यता को अग्रणी बनाना है, तो विकास कीजिए। जीवन का विकास करना है, तो पर्यावरण को समृद्ध रखिए। स्पष्ट है कि पर्यावरण और विकास, एक-दूसरे का पूरक होकर ही इंसान की सहायता कर सकते हैं; बावजूद इस सच के आज पर्यावरण और विकास की चाहत रखने वालों ने एक-दूसरे को परस्पर विरोधी मान लिया है।। पर्यावरण सुरक्षा की मुहिम चलाने वाले ऐसे कई संगठनों को विकास में अवरोध उत्पन्न करने के दोषी घोषित किया जाता रहा है। दूसरी ओर, पर्यावरण के मोर्चे पर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। जिनका जवाब बनने की कोशिश कम, सवाल उठाने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं। ऐसा क्यों ?
अच्छा नहीं यह ह्यस
सब जानते हैं कि बढता तापमान और बढता कचरा, पर्यावरण ही नहीं, विकास के हर पहलू की सबसे बङी चुनौती है। वैज्ञानिक आकलन है कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, तो बर्फ पिघलने की रफ्तार बढती जायेगी। समुद्रों का जलस्तर बढेगा। नतीजे में कुछ छोटे देश व टापू डूब जायेंगे। समुद्र किनारे की कृषि भूमि कम होगी। लवणता बढेगी। समुद्री किनारों पर पेयजल का संकट गहरायेगा। समुद्री खाद्य उत्पादन के रूप में उपलब्ध जीव कम होंगे। वातावरण में मौजूद जल की मात्रा में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप, मौसम में और परिवर्तन होंगे। बदलता मौसम तूफान, सूखा और बाढ लायेगा। हेमंत और बसंत ऋतु गायब हो जायेंगी। इससे मध्य एशिया के कुछ इलाकों में खाद्यान्न उत्पादन बढेगा। किंतु दक्षिण एशिया में घटेगा। नहीं चेते, तो खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबी भारत जैसे देश में भी खाद्यान्न आयात की स्थिति बनेगी। पानी का संकट बढेगा। जहां बाढ और सुखाङ कभी नहीं आते थे, वे नये ’सूखा क्षेत्र’ और ’बाढ क्षेत्र’ के रूप मंे चिन्हित होंगे। जाहिर है कि इन सभी कारणों से मंहगाई बढेगी। दूसरी ओर मौसमी परिवर्तन के कारण पौधों और जीवों के स्वभाव में परिवर्तन आयेगा। पंछी समय से पूर्व अंडे देने लगेंगे। ठंडी प्रकृति वाले पंछी अपना ठिकाना बदलने को मजबूर होंगे। इससे उनके मूल स्थान पर उनका भोजन रहे जीवों की संख्या एकाएक बढ जायेगी। कई प्रजातियां लुप्त हो जायेंगे। मनुष्य भी लू, हैजा, जापानी बुखार जैसी बीमारियों और महामारियों का शिकार बनेगा। ये आकलन, जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल के हैं।
जिम्मेदार कौन ?
पर्यावरण कार्यकर्ता और अन्य आकलन भी इस सभी के लिए इंसान की अतिवादी गतिविधियों को जिम्मेदार मानते हैं। तापमान में बढोत्तरी का 90 प्रतिशत जिम्मेदार तो अकेले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को ही माना गया है। मूल कारण है, अतिवादी उपभोग। सारी दुनिया, यदि अमेरिकी लोगों जैसी जीवन शैली जीने लग जाये, तो 3.9 अतिरिक्त पृथ्वी के बगैर हमारा गुजारा चलने वाला नहीं। अमेरिका, दुनिया का नबंर एक प्रदूषक है, तो चीन नंबर दो।
चेतावनी साफ है; फिर भी भारत, उपभोगवादी चीन और अमेरिका जैसा बनना चाहता है। क्यों ? भारत भी अब कई ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनने की उसी वैश्विक होङ में शामिल होता देश है, जिसमें चीन और अमेरिका अभी भारत से क्रमशः पांच साढे सात गुना आगे हैं। वह भारतीय सभ्यता और संस्कार का भारत न होकर कुछ और हो जाने को बेताब है। क्या हम ऐसा करें ? जवाब के लिए अमेरिका विकास और पर्यावरण के जरिए आइये समझ लें कि विकास, समग्र अच्छा या सिर्फ भौतिक और आर्थिक।
अमेरिकी विकास और पर्यावरण
संयुक्त राज्य अमेरिका में दुनिया की पांच प्रतिशत आबादी रहती है। किंतु प्रदूषण मे उसकी हिस्सेदारी 25 प्रतिशत है। कारण कि वहां 30 करोङ की आबादी के पास 25 करोङ कारें हैं। बहुमत के पास पैसा है, इसलिए ’यूज एण्ड थ्रो’ की प्रवृति भी है। उपभोग ज्यादा हैं, तो कचरा भी ज्यादा है और संसाधन की खपत भी। अमेरिका के थर्मल पावर संयंत्रों से 120 मिलियन टन कचरा छोङने का आंकङा है। परिणामस्वरूप, 2004 के बाद से अब तक अमेरिका के एक दर्जन बङे बिजली संयंत्र या तो बंद हो गये हैं अथवा उत्पादन गिर जाने से बंद होने के कगार पर हैं। उसने अपने कई बङे बांधों को तोङ दिया है। खबर यह भी है कि आठ राज्यों ने तो नये बिजली संयंत्र लगाने से ही इंकार कर दिया है।
अमेरिका में पानी की कुल खपत का सबसे ज्यादा, 41 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन में खर्च होता है। पानी पर यह निर्भरता इस कमी के बावजूद है कि कम होती बारिश व सूखा मिलकर 2025 तक ली वेगास, साल्ट लेक, जार्जिया, टेनेसी जैसे इलाकों के पानी प्रबंधन पर लाल निशान लगा देंगे। चेतावनी यह भी है कि 2050 तक कोलरेडा जैसी कई प्रमुख नदी के प्रवाह में भी 20 प्रतिशत तक कमी आ जायेगी। एक ओर ताजे पानी का बढता खर्च, घटते जल स्त्रोत और दूसरी तरफ किसान, उद्योग और शहर के बीच खपत व बंटवारे के बढते विवाद। बङी आबादी उपभोग की अति कर रही है, तो करीब एक करोङ अमेरिकी जीवन की न्यूनतम जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विषमता का यह विष, सामाजिक विन्यास बिगाङ रहा है।
नतीजा यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका समेत विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं के संसाधन, सेहत और आबोहवा को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। वे मानते हैं कि कचरे से मौत होती है। कम आय वालों की मौत होने से कम नुकसान होगा। ज्यादातर विकसित देशों के संवेदनाहीन विकास का सच यही है। क्या यह किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत हैं कि उससे प्रेरित हुआ जा सके ? क्या ऐसी मलीन अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाने की बेसब्री उचित है ? क्या भारत को इससे बचना नहीं चाहिए ?
यह खोना है कि पाना ?
आर्थिक विकास की असलियत बताते अन्य आंकङे यह हैं कि प्रदूषित हवा की वजह से यूरोपीय देशों ने एक ही वर्ष में 1.6 ट्रिलियन डाॅलर और 6 लाख जीवन खो दिए। एक अन्य आंकङा है कि वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डाॅलर खो दिए। दुखद है कि दुनिया में 7400 लाख लोगों को वह पानी मुहैया नहीं, जिसे किसी भी मुल्क के मानक पीने योग्य मानते हैं। दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ आये प्रदूषण की वजह से हो रही हैं। हमें होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियों की मूल वजह पानी का प्रदूषण, कमी या अधिकता ही बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि दिल्ली की हवा में बीजिंग से ज्यादा कचरा है। हमारी नदियों में इतना कचरा है कि हमारी एक भी महानगरीय नदी ऐसी नहीं, जिसका पानी सीधे पीया जा सके। भारत, भूजल में आर्सेनिक, नाइट्रेट, फ्लोराइड तथा भारी धातु वाली अशुद्धियों की तेजी से बढोत्तरी वाला देश बन गया है। भारत में हर रोज औसतन करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा निकलता है। हर भारतीय, एक साल में पाॅलीथीन झिल्ली के रूप में औसतन आधा किलोग्राम कचरा बढाता है। ..तो हम क्या करें ? क्या आदिम युग का जीवन जीयें ? क्या गरीब के गरीब ही बने रहें ? आप यह प्रश्न कर सकते हैं। ढांचागत और आर्थिक विकास के पक्षधर भी यही प्रश्न कर रहे हैं।
भारत क्या करें ?
जवाब है कि भारत सबसे पहले अपने से प्रश्न करें कि यह खोना है कि पाना ? भारत, सभी के शुभ के लिए लाभ कमाने की अपनी महाजनी परंपरा को याद करे। हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। यदि भारत में प्रतिदिन पैदा हो रहे 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरे का ठीक से निष्पादन किया जाये, तो इतने कचरे से प्रतिदिन 27 हजार करोङ रुपये की खाद बनाई जा सकती है। 45 लाख एकङ बंजर भूमि उपजाऊ बनाई जा सकती है। 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा किया जा सकता है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है; यह करें। कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। वर्तमान नगरों का कचरा और सीवेज हमसे संभाले नहीं संभल रहा। हम गांव-गांव शौचालय बनाकर सीवेज की मात्रा बढाने जा रहे हैं। जहां अत्यंत आवश्यक न हो, वहां अभी हम यह न करें।
नगर विकास
दुनियाभर में हर सप्ताह करीब 10 लाख लोग अपनी जङों से उखङकर शहरों की ओर पलायन कर रहेे हैं। अनुमान है कि वर्ष-2050 तक ढाई बिलियन लोग शहरों में रहने लगेेंगे। इसका एक कारण पानी भी है। भारत सरकार ने 100 स्मार्ट सिटी का एजेंडा अपने हाथ ले ही लिया है। गांवों से पलायन, शहरीकरण का सपना तथा रफ्तार बता रही है कि इस सदी का मध्य आते-आते भारत भी गांवों का देश नहीं बचेगा। ज्यादातर गांव, कस्बों में और कस्बे, नगरों मे तब्दील हो जायेंगे। नगरों में भीङ, कचरा, स्लम तथा प्राकृतिक संसाधनों की मांग-आपूर्ति के मसले और बङी चुनौती बनकर पेश होंगे। अभी भारत में अनियोजित नगरों की संख्या 3894 है; आगे कई गुना अधिक हो जायेगी। इस नाते भारत के नगरों के समक्ष यह चुनौती ज्यादा होगी। फिर भी इस वैश्विक प्रभाव को कोई रोक नहीं सकता; यह साफ है। अतः सावधानी भी साफ है कि हम अपने नगरों का विकास ऐसे करें ताकि पानी के कारण यूं उजङना न पङे, जैसे कभी दिल्ली तीन बार उजङी। नगर बाद में बसायें, पानी और आबोहवा की शुद्धता का इंतजाम पहले करें। नगर के कौन से हिस्से में उद्योग, कौन से हिस्से में आवास आदि हों, इनके निर्धारण में अन्य कारकों के साथ-साथ जलस्त्रोतों की क्षमता और उपलब्धता का भी ध्यान जरूरी है। वाटर रिजर्व’, ’ग्रीन रिजर्व’ और ’वेस्ट रिजर्व’ जोन का निर्धारण कर यह किया जा सकता है; आइये करें। आज ताजा पानी नहरों में और सीवेज के मल और उ़द्योगों के शोधित अवजल नदियों में बहाया जा रहा है। नगरीय नालों का नियोजन ऐसा हो कि इसके विपरीत ताजा जल नदी में बहे और शोधित मल-अवजल नहरों में बहाया जाये। मां गंगा को 20 हजार करोङ के बजट से ज्यादा, इस नीतिगत बदलाव की जरूरत है।
ग्राम विकास
गणित लगाइये, खेती में सबसे ज्यादा खर्च सिंचाई के लिए ही करना पङ रहा है। नहर, समर्सिबल अथवा जेट पंप इस गणित को उलट नहीं सकते। बारिश की बूंदों को सहेजकर बनाये जलसंचयन ढांचों के बूते खेती का स्वालंबन और मुनाफा वापसी काफी कुछ संभव है। खेतिहर को मिले मूल्य और खुदरा ग्राहक द्वारा दिए मूल्य के बीच की दूरी घटाना जरूरी है। गांवों में शिक्षा, रोजगार और इलाज के सर्वश्रेष्ठ इंतजाम जरूरी हैं। अपना पानी, अपना बीज, अपनी खाद, अपनी कारीगरी. साझा ग्रामोद्योग और साहचर्य सहेजना जरूरी है। हम यह कर सके तो खेती, खेतिहर, पर्यावास और गांव अपने आप सहेज उठेंगे; तब न खेती घाटे का सौदा रहेगी और न गांव में रहना।
ऊर्जा विकास
ऊर्जा विकास और जल विकास, अलग न किए जा सकने वाले दो दोस्त हैं। ऊर्जा बचेगी, तो पानी बचेगा; पानी बचेगा, तो ऊर्जा बचेगी। इसके लिए बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाय प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। कोयला व तैलीय ईंधन से लेकर गैस संयंत्रों तक को ठंडा करने की ऐसी तकनीक उपयोग करो कि उसमें कम से कम पानी लगे। उन्हे हवा से ठंडा करने की तकनीक का उपयोग करो। ऊर्जा बनाने के लिए हवा, कचरा तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम से कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो बजाय किसी फैक्टरी मंे बनने के हमारे द्वारा हमारे आसपास तैयार व उपलब्ध हो। कुछ भी करो; बसर्, इंधन और ऊर्जा बचाओ; पानी अपने आप बचेगा। जितनी स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन करेंगे, हमारा पानी उतना स्वच्छ बचेगा। स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बनडाइआॅक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। चिंता यह है कि बावजूद इस स्पष्टता के हम न तो पानी के उपयोग में अनुशासन तथा पुर्नोपयोग व कचरा प्रबंधन में दक्षता ला पा रहे हैं और नहीं ऊर्जा के। यह कैसे हो ? सोचें और करें।
औद्योगिक विकास
फिक्की द्वारा कराये एक औद्योगिक सर्वेक्षण में शामिल भारतीय उद्योग जगत के 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने माना कि कि पानी की कमी या प्रदूषण के कारण उनके उद्योग पर नकारात्मक प्र्रभाव पङ रहा है। क्या करें ? नैतिक और कानूनी.. दोनो स्तर पर यह सुनिश्चित करें कि जो उद्योग जितना पानी खर्च करे, वह उसी क्षेत्र में कम से कम उतने पानी के संचयन का इंतजाम करे। प्राकृतिक संसाधन के दोहन कचरे के निष्पादन, शोधन और पुर्नोपयोग को लेकर उद्योगों को अपनी क्षमता और ईमानदारी, व्यवहार में दिखानी होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह पानी-पर्यावरण की चिंता करने वाले कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी बताने की बजाय, समझे कि पानी बचेगा, तो ही उद्योग बचेंगे; वरना् किया गया निवेश भी जायेगा और भारत का औद्योगिक स्वावलंबन भी।
आर्थिक विकास
पंचतत्वों का रोजगार, आर्थिक विकास दर और हमारे होठों पर स्थाई मुसकान से गहरा रिश्ता है। इस रिश्ते की गुहार यह है कि अब भारत ’प्राकृतिक संसाधन समृद्धि विकास दर’ को घटाये बगैर, आर्थिक विकास दर बढाने वाला माॅडल चुने। जरूरत प्राकृतिक संसाधनों के व्यावसायीकरण से होने वाले मुनाफे में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी के प्रावधान करने से ज्यादा, प्राकृतिक संसाधनों का शोषण रोकने की है। भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ अपनी बातचीत में प्रकृति से साथ रिश्ते की भारतीय संस्कृति का संदर्भ पेश करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन रोकने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है।
जरूरी है कि यह प्रतिबद्धता, जमीन पर उतरे। बैराज, नदी जोङ, जलमार्ग, जलविद्युत, भूमि विकास, नगर विकास, खनन, उद्योग आदि के बारे में निर्णय लेते वक्त विश्लेषण हो कि इनसे किसे कितना रोजगार मिलेगा, कितना छिनेगा ? किसे, कितना मुनाफा होगा और किसका, कितना मुनाफा छिन जायेगा ? जीडीपी को आर्थिक विकास का सबसे अच्छा संकेतक मानने से पहले सोचना ही होगा कि जिन वर्षों में भारत में जीडीपी सर्वोच्च रही, उन्ही वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं के आंकङे सर्वोच्च क्यांे रहें ?? इस समय की समझदारी और सीख यही है कि दुनिया के सभी देश धन का घमंड छोङ, पूरी धुन के साथ विकास की एक ऐसी रूपरेखा को अंजाम देने में जुट जायें; ताकि जिसमें कुदरत के घरौंदें भी बचें और हमारी आथिक, सामाजिक व निजी खुशियां भी। वरना् याद रखें कि प्रकृति, सेहत, खेती और रोजगार पर संकट अकेले नहीं आते, अनैतिकता और अपराध को ये साथ लाते हैं।
समग्र विकास
पर्यावरण को लकर बढते विवाद, बढती राजनीति, बढता बाजार, बढते बीमार, बढती प्यास और घटती उपलब्धता को देखते हुए हम यह नकारा नहीं जा सकता कि पर्यावरण, विकास को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता जितनी घटती जायेगी, विकास के सभी पैमाने हासिल करने की चीख-पुकार उतनी बढती जायेगी। अतः चाहे नमामि गंगे का संकल्प सिद्ध करना हो या स्वस्थ, स्वच्छ, सक्षम और डिजीटल भारत का, स्वच्छ… प्रकृति निर्मित ढांचों और मानव निर्मित ढांचों के बीच संतुलन साधना ही इसका समाधान है। उपभोग घटायें, सदुपयोग बढायें और प्राकृतिक संसाधनों की समृद्धि भी। मांग यही है।
प्रकृति से जुड़ें
याद रहे कि सम्पूर्ण विकास, कभी एकांगी या परजीवी नहीं होता। वह, हमेशा सर्वजीवी, सर्वोदयी, समग्र और कालजयी होता है। आर्थिक, भौतिक, सामुदायिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक, मानसिक, प्राकृतिक आदि का समावेश उसे समग्र बनाता है। ‘सबका साथ: सबका विकास’ के नारे में समग्र विकास की यह परिभाषा स्वतः निहित है। प्रकृति के साथ और प्रकृति के विकास के बिना, समग्र विकास की कल्पना और व्यवहार… दोनो ही अधूरी ही रहने वाले हैं। प्रकृति के साथ विकास के लिए प्रकृति से जुड़ना जरूरी है। इसीलिए इस वर्ष – 2017 के अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस का निर्देश वाक्य है – ”कनेक्ट विद नेचर” यानी प्रकृति से जुड़ें । आइये, जुडे़ं।
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