तमिलनाडु के किसानों का राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना
तमिलनाडु के किसानों का राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना तथा 23 अप्रैल को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की पुणतांबा ग्राम सभा ने एक जून से अहमदनगर और नासिक मंडियों तथा आस-पास के शहर-कस्बों में दूध, फल और सब्जियों की आपूर्ति रोकने का फैसला लिया। उधर, मध्य प्रदेश के मालवा और निमाड़ क्षेत्र के छोटे-छोटे कई किसान संगठनों ने मिलकर फसलों के उचित दाम, कर्जा मुक्ति सहित 19 सूत्रीय मांगों को लेकर 1 जून से 10 जून तक शहरों-कस्बों में दूध, फल और सब्जी की सप्लाई रोक महाहड़ताल पर जाने की शुरुआत की। किसानों के आंदोलन के बीच में 4 जून को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ संगठनों को बुलाकर बातचीत की और इन संगठनों ने किसान आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी। बस यही बात बाकी किसान संगठनों को नागवार गुजरी और अगले ही दिन किसान सड़कों पर उतर आये। मंदसौर की पिपलियां मंडी में मृतप्राय पड़ी कांग्रेस विधायक और कार्यकर्ताओं ने किसानों के बीच घुसकर सरकारी व अन्य वाहनों को आग के हवाले करना शुरू कर दिया। पुलिस ने हिंसा को काबू करने के लिए पहले लाठीचार्ज, फिर आंसू गैस के गोले और बाद में फायरिंग करना शुरू कर दिया जिसमें छह किसानों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हुए। मौत की खबर ने मंदसौर की चिंगारी से भड़की आग पूरे मध्य प्रदेश में फैल गई और पूरा प्रदेश आंदोलन की चपेट में आ गया।
मुख्यमंत्री ने तत्काल घटना की न्यायिक जांच के आदेश देते हुए मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये का मुआवजा, किसी एक योग्य परिजन को सरकारी नौकरी तथा घायलों को पांच लाख रुपये की सहायता प्रदान की। साथ ही, मूंग, उड़द, अरहर की खरीद के साथ-साथ प्याज की 8 रुपये किलो की दर से सरकारी खरीद शुरू की। 13 जून को आदेश जारी कर ‘’मध्य प्रदेश कृषि उत्पाद लागत एवं विपणन आयोग’’ का गठन किया। साथ ही, महाराष्ट्र, के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी किसानों के कर्ज माफ करने और दूध के रेट बढ़ाने की घोषणा कर दी। उत्तर प्रदेश सरकार पहले ही प्रदेश के किसानों का 36,000 करोड़ का कर्ज माफ करने की घोषणा कर चुकी है। भाजपा शासित राज्यों के अलावा पंजाब सरकार भी किसानों का कर्ज माफ करने जा रही है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के बाद से सरकारों की गलत नीतियों, अनदेखी और प्राकृतिक आपदा के कारण ही किसान कर्ज के जाल में फंसा है। आज देश के 56 प्रतिशत किसानों पर 12.60 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। इसमें 7.75 लाख करोड़ फसली तथा 4.84 लाख करोड़ टर्म लोन है। खेती में लगने वाली लागत, फसलों से मिलने वाले दामों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर देखें, तो प्याज को पैदा करने की लागत 8 रुपये किलो और आलू की लागत 6 रुपये किलो से कम नहीं आती, लेकिन किसान एक-दो रुपये किलो के भाव पर अपना उत्पाद बेचने को मजबूर है। आज देश में 28 करोड़ टन से अधिक फल और सब्जियों का उत्पादन करने वाले किसानों की स्थिति बहुत ही बदतर है। बाजार भाव का मात्र 20 प्रतिशत मूल्य भी उसके हिस्से नहीं आता । फल और सब्जियों का रिकॉर्ड उत्पादन होने के बावजूद न तो खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और ना ही कोल्ड चेन की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था हो पाई है जिसके चलते हर वर्ष 92 हजार करोड़ रुपये का नुकसान किसानों को उठाना पड़ रहा है। दूसरी ओर, कृषि के अलावा पशुपालन भी किसानोंकी आमदनी का मुख्य जरिया है। मगर मौजूदा दौर में पशुपालन भी घाटे का सौदा बनता जा रहा है। किसान को एक लीटर दूध उत्पादन में लगभग 10 रुपये लीटर का घाटा तक उठाना पड रहा है।
लगातार दो वर्ष सूखे की मार झेलने के बाद इस वर्ष मौसम ने साथ दिया और खाद्यान्न का 27.2 करोड़ टन का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। देश का कुल दलहन उत्पादन 37 फीसदी बढ़कर 2.24 करोड़ टन जा पहुंचा। जो पिछले वर्ष के उत्पादन 163.5 लाख टन की तुलना में 58.9 लाख टन ज्यादा है। तिलहन का उत्पादन भी 3.36 करोड़ टन हुआ जोकि पिछले वर्ष के उत्पादन 252 लाख टन से 33 फीसदी अधिक है। इस बार अरहर के किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,050 रुपये प्रति क्विंटल था। लेकिन किसानों को अरहर 3000 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम कीमत पर बेचनी पड़ी । ये स्थिति केवल दलहन के साथ ही नहीं है, बल्कि गेहूं, धान, सरसों, सोयाबीन, मूंगफली, गन्ना, कपास सहित कमोबेश यही स्थिति है। सूखा पड़े पैदावार घटे या मौसम साथ दे तो पैदावार बढ़े, दोनों ही परिस्थिति में किसान को मरना ही है।
किसानों की दुर्दशा का विश्लेषण करते हुए सरकारी नीतियों की समीक्षा भी होनी चाहिए। इस बार जब दालों का रिकॉर्ड उत्पादन होने जा रहा था। ठीक उसी वक्त दालों का आयात 20 फीसदी बढ़कर 57 लाख टन कर दिया गया। ऊपर से व्यापारियों की स्टॉक लिमिट भी दो सौ टन तक ही सीमित थी जिससे व्यापारी ज्यादा खरीद नहीं कर पाए। हालांकि हाय-तौबा मचने के बाद 17 मई को केंद्र सरकार के स्टॉक लिमिट हटाने के बावजूद दिल्ली समेत 25 राज्यों ने आज तक स्टॉक लिमिट हटाने का आदेश अभी तक नहीं निकाला है। ध्यान देने वाली बात तो ये है कि दलहन की फसल जनवरी-फरवरी में बाजारों में आ जाती है और स्टॉक लिमिट हटाई गई मई में…ऐसे में इसके औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी है।
पिछले वर्ष दिसंबर में केंद्र सरकार ने गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन के अनुमान के बावजूद 25 फीसदी आयात शुल्क को पहले 10 फीसदी और बाद में पूरी तरह से समाप्त कर दिया। जिससे 50 लाख टन गेहूं का आयात हुआ, परिणामस्वरूप गेहूं के दाम खुले बाजारों में काफी नीचे गिर गए। खरीफ में तिलहन की फसल आने से पहले ही क्रूड और रिफाइंड पाम तेल पर आयात शुल्क पांच फीसदी घटा दिए गए, जिससे घरेलू बाजार में मूंगफली और सोयाबीन के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से एक हजार रुपये क्विंटल तक नीचे आ गए। गेहूं, दलहन और तिलहन ही नहीं गन्ना, कपास सहित फल और फूलों के किसानों पर भी समय-समय सरकारी नीतियों की मार पड़ती रहती है।
सरकारी नीतियों का ही परिणाम है कि वर्ष 1970-71 में भारत से दालों के बीज ले जाने वाले कनाडा और ऑस्ट्रेलिया अब भारत को ही दालों का निर्यात कर रहे हैं। वर्ष 1993-94 तक हम अपनी जरुरत का मात्र तीन फीसदी ही आयात करते थे। आज कृषि जिन्सों की आयात-निर्यात करने वाली नीतियों का परिणाम है कि फिलहाल देश अपनी जरुरत का 40 फीसदी दलहन और 60 फीसदी खाद्य तेलों का आयात कर रहा है। जिस पर सालाना करीब 60 से 70 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इससे किसानों की जेबों में जाना वाला हिस्सा विदेशी कंपनियों की जेब में जा रहा है।
ये भी सच है कि कोई भी सरकार पूरी पैदावार की खरीद और भंडारण नहीं कर सकती, खुली अर्थव्यवस्था के चलते उसे बाजारों के भरोसे ही रहना पड़ेगा। लेकिन जब खुले बाजारों में भी उपज के दाम अत्यधिक बढ़े या घटे, किसानों या उपभोक्ताओं को त्रास पहुंचाए, तो सरकार को आयात या निर्यात के मामलों में न्यायसंगत ढंग से हस्तक्षेप करना चाहिए जो समय रहते नहीं हो पाता।
किसानों में बढ़ती हताशा और उपजा आक्रोश असंतुलित व्यवस्था की देन है। एक ओर कृषि उत्पादों के मूल्यों की तुलना में, कृषि में लगने वाले संसाधनों के मूल्यों में अधिक वृद्धि हुई है जिससे कृषि की लाभकारिता गिरी है। उदाहरण के तौर पर समझे- तो वर्ष 1970-71 में गेहूं का समर्थन मूल्य 76 रुपये क्विंटल था जो आज बढ़कर 1625 रुपये क्विंटल है यानि 21 गुना बढ़ा है, वहीं खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली, सिंचाई, मजदूरी और कृषि यंत्रों की दर में भारी वृद्धि हुई है। बीजों और कीटनाशकों की कीमतों में 500 गुना से ज्यादा की वृद्धि हुई । वर्ष 1970 में मैसी ट्रैक्टर की कीमत 21,140 रुपये थी जो आज बढ़कर 8 लाख रुपये हो गयी है यानि 40 गुना वृद्धि हई है। खेती के अलावा बाकी वस्तुओं का आंकलन भी करें तो उस वक्त सीमेंट की बोरी 8 रुपये से बढ़कर 330 रुपये यानी 41 गुना, ईंट दस रुपये हजार से बढ़कर 4200 रुपये हजार यानी 420 गुना वृद्धि, सरिया 9 रुपये क्विंटल से बढ़कर 4500 रुपये प्रति क्विंटल यानी 500 गुना वृद्धि हुई है। मजदूरी 2 रुपये से बढ़कर 350 रुपये यानी 175 गुना वृद्धि हुई है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भी 150 से 200 गुना वृद्धि हुई है।
दूसरी ओर अगर खेती की बात करें… तो इसमें जोत का आकार घटा है जबकि आश्रितों की संख्या बढ़ी है। पीढ़ी दर पीढ़ी जमीन के बंटवारे से देश के 82 फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम भूमि बची है। केवल 5 फीसदी किसान ही खेती से घर का खर्च निकाल पा रहे हैं। जबकि खेती पर आश्रित बाकी किसान भी बेहतर जीवन की तलाश में हैं, बढ़ते भौतिकवाद ने उनकी इच्छाओं को बढ़ा दिया है। किसान और उसके परिवार में टेलीविजन पर देखी सभी चीजें हासिल करने की इच्छा जन्म लेती है। परन्तु घाटे की खेती के कारण इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। शायद यही वजह है दीनता के भाव और अभाव के बोझ से 30 फीसदी किसान डिप्रेशन के शिकार हैं। अब एक और आंकड़े पर गौर करें, यह राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा है जो बताता है कि 1995 से 2015 के दौरान 3,18,528 किसानों ने आत्महत्या की यानि हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है। यह मुद्दा इतना गंभीर था कि सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए 27 मार्च को केंद्र सरकार से चार हफ्ते के भीतर रिपोर्ट दाखिल करने और यह बताने को कहा कि किसानों की आत्महत्या के मुद्दे से निपटने के लिए राज्यों की क्या कार्य योजना है? , अदालत सरकार से यह भी चाहती है कि वह किसानों की आत्महत्या के बुनियादी कारणों से निपटने के लिए एक नीति लेकर आए।
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश ही नहीं, समस्त देश के किसान पिछले कुछ समय से ऋण मुक्ति और फसलों की लागत पर पचास फीसदी मुनाफा जोड़कर, समर्थन मूल्य की मांग कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव के तत्काल बाद प्रधानमंत्री द्वारा कर्ज माफी की घोषणा को अमल में लाया गया जिससे अन्य राज्यों के किसानों ने भी अपनी सरकार पर कर्ज माफी के लिए दबाव बनाना शुरू किया है। उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने जैसे ही कर्ज माफी की घोषणा की, वैसे ही भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, भारतीय स्टेट बैंक की चैयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य और कई अर्थशास्त्री किसानों की कर्ज माफी के खिलाफ माहौल बनाने में जुट गए। उर्जित पटेल ने किसानों की कर्ज माफी को ‘’नैतिक त्रासदी’’ करार दिया है तो अरुंधति भट्टाचार्य ने इसे कर्ज अनुशासन बिगाड़ने वाला कदम बताया। किसानों के कर्ज के मर्ज से अनजान लोग भी कर्ज माफी को गले नहीं उतार पा रहे हैं। हर साल कॉर्पोरेट को मिलने वाली 5 से 6 लाख करोड़ रुपये की छूट तथा जानबूझकर बैंकों के 6.8 लाख करोड़ रुपये के डूबते कर्ज को देखते हुए इन अर्थशास्त्रियों को तब न तो कर्ज अनुशासन की याद आती है न ही बैंक की बैंलेसशीट की फिक्र होती है। आखिर किस आधार पर उन्हें कॉर्पोरेट का कर्ज माफ करना आर्थिक समझदारी लगती है और किसानों का कर्ज माफ करना गलत, ये समझ से परे है। किसान अपने साथ हो रहे सौतेले व्यवहार की वजह से आक्रोश में है।
ध्यान रखना होगा कि किसान पर कर्ज उसकी खराब नीयत के कारण नहीं, गलत नीतियों के कारण है। कुछ उदाहरण के द्वारा हिसाब लगाते हैं- इस साल गेहूं की पैदावार 9.70 करोड़ टन हुई है। इस पैदावार में से मात्र 3.30 करोड़ टन की खरीद सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपये प्रति क्विंटल पर होगी, शेष 6.40 करोड़ टन गेहूं खुले बाजार में बिकेगा, जिसका औसत दाम 1225 रुपये क्विंटल है यानि एक क्विंटल पर 400 रुपये (4000 रुपये प्रति टन) का घाटा – 6.40 करोड़ टन x 4000 रुपये= 25,600 करोड़ रुपये- केवल एक फसल पर किसान को उठाना पड़ रहा है।
इसी तरह धान जिसकी पैदावार 10.88 करोड़ टन पर 4000 रुपये प्रति टन, दलहन की पैदावार 2.24 करोड़ टन पर 20,000 रुपये प्रति टन, तिलहन की पैदावार 3.35 करोड़ पर 1000 रुपये प्रति टन व कपास, गन्ना सहित अन्य फसलों के अलावा 28 करोड़ टन फल-सब्जी पर लगभग 3 लाख करोड़ रुपये और 15.5 करोड़ टन दूध पर 1.5 करोड़ रुपये से अधिक, कुल मिलाकर हर वर्ष 7.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान किसान को उठाना पड़ रहा है। मात्र बाजार व्यवस्था को ठीक कर दिया जाए तो किसान ऋण लेने वाला नहीं बल्कि ऋण देने वाला बन जाएगा।
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल सहित सभी विद्वान अर्थशास्त्रियों को अपने कथन पर पुन: विचार करने की जरुरत है। इस समय किसानों की हालत इतनी खराब है कि कर्ज माफी जैसी दवा की तत्काल जरुरत है। ये सही है कि कर्ज माफी कृषि संकट का स्थायी समाधान नहीं है फिर भी मौजूदा बदहाली से बाहर निकलने में कुछ मदद जरुर मिलेगी।
किसान कर्ज माफी के साथ-साथ कृषि संकट का स्थायी हल खोजने के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग भी कर रहा है जिसका वादा मेरी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में किया था। स्वामीनाथन आयोग ने कहा है कि एमएसएपी औसतन उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत ज्यादा होनी चाहिए। आयोग ने किसानों के संकट और उनकी आत्महत्याएं बढ़ने के कारणों पर ध्यान देते हुए, उनके लिए राष्ट्रीय कृषि नीति बनाने की सिफारिश की है। इस रिपोर्ट में किसानों के संसाधन और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने पर खासा जोर दिया गया है। आयोग ने भूमि सुधार, सिंचाई , कृषि ऋण एवं बीमा, खाद्य सुरक्षा, रोजगार, कृषि उत्पादकता और लाभप्रदता बढ़ाने तथा उसमें निरंतरता बनी रहने और किसान सहकारिता पर नीतिगत सिफारिशें की हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उत्पाद की कीमत गिरने पर उसके आयात से किसानों को बचाना भी जरुरी है। आयोग ने गेहूं व धान के अलावा अन्य फसलों के लिए भी एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था करने की सिफारिश की है। आयोग की यह भी संस्तुति है कि फसली ऋण पर ब्याज की दर कम की जाए, कर्ज वसूली स्थगित की जाए और आपदा आने पर ब्याज माफ किया जाए। लगातार प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में किसानों की मदद के लिए एग्रीकल्चर रिस्क फंड बनाया जाए। महिलाओं को संयुक्त किसान क्रेडिट कार्ड दिए जाएं। कम प्रीमियम पर फसल, पशुधन एवं किसान को इंटीग्रेटेड हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में लाया जाए। साथ ही बुजुर्ग किसानों को सामाजिक सुरक्षा और हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में लाया जाए। आयोग ने कहा है कि किसान की आमदनी की तुलना सरकारी नौकरीपेशा लोगों से होनी चाहिए। आयोग ने कहा है कि कृषि को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए क्योंकि कृषि अभी तक राज्यों का विषय है। समवर्ती सूची में आ जाने से कृषि को लेकर केंद्र और राज्य दोनों ही दखल दे सकेंगे।
प्रधानमंत्री को गरीबों और किसानों की मुश्किल भरी जिंदगी का अहसास है। देश के आम लोगों ने उनमें विश्वास व्यक्त किया है। इसलिए उन्होंने गरीबों के लिए अनेकों कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की है। साथ ही किसानों के लिए कृषि बजट की रकम 2015 में 16,646 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2016 में 20,400 करोड़ रुपये और 2017 में 41,855 करोड़ रुपये हो गई। सरकार ने पिछले तीन वर्षों में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य जांच कार्ड, राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम), किसान चैनल, पारंपरिक कृषि योजना समेत खेती से संबंधी कई योजनाओं का ऐलान किया है। सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी को बढ़ाकर दोगुना करने का भी वादा किया है। इस सबके बावजूद भी किसानों को लोकतांत्रिक ढंग से अपनी तकलीफ और सरकार द्वारा किया गया वादा याद दिलाने का पूरा अधिकार है। मगर अपनी मांगों को मनवानों के लिए अंहिसा का रास्ता अपनाना बिल्कुल अनुचित है। लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है और शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात सरकार तक पहुंचाई जा सकती है।