गुब्बारे वाला एक लघुकथा
हनुमान जी के मन्दिर में सवामणी चढ़ा कर लौटते हुए एक भक्त से उसके बेटे ने गुब्बारे दिलवाने की जिद की। बच्चा पिट गया। वजह शायद बच्चे की जिद रही होगी या सवामणी के पुण्य का दम्भ इतना बढ़ गया होगा कि भक्त सिर्फ उसी में बौराया था और उसका बच्चे के भाव से तारतम्य टूट गया हो । या फिर वह अपनी ही उलझनो से इतना बोझिल था कि उसका ईश्वर के घर आ कर भी गुस्से पर काबू ना रहा।
गुब्बारे वाले के पास बहुत भीड थी, भीड़ में से भी उसकी नजर पिटते बच्चे पर जा पड़ी। बच्चा रो रहा था और भक्त पिता बच्चे को डांटे जा रहा था। गुब्बारे वाला उस बच्चे की ओर आया और एक गुब्बारा बच्चे के हाथ में पकड़ा दिया। भक्त ग़ुस्से में तो था ही। वह गुब्बारे वाले से उलझ पड़ा । “तुम मौके की ताड मे रहा करो बस, कोई बच्चा तुम्हे जिद करता दिख जाए बस। झट से पीछे लग जाते हो। नही लेना गुब्बारा।” और भक्त ने गुब्बारे वाले को बुरी तरह झिडक दिया।
गुब्बारे वाला बच्चे के हाथ में गुब्बारा पकड़ाते हुए बोला-” मैं यहाँ गुब्बारे बेचने नही आता, बांटने आता हूं। किसी दिन मुझे किसी ने बोध करवाया कि ईश्वर तो बच्चों मे है। मैं हर मंगलवार सौ रूपये के गुब्बारे लाता हूँ। इनमे खुद ही हवा भरता हूं। एक गुब्बारा मंदिर मे बाँध आता हूं बाकि सब यहाँ बच्चों मे बाँट देता हूँ। मेरा तो यही प्रसाद हैं। हनुमान जी स्वीकार करते होंगे ना।
सवा मनी का बड़ा पुण्य भक्त को एकाएक छोटा लगने लगा।